Sukti Mauktikam ,सूक्तिमौक्तिकम् class 9 Shemushi


सूक्तिमौक्तिकम्

पंचम पाठः

वृतं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च।

अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः।। (मनुस्मृतिः)

अन्वयः- (मनुष्यः) वृत्तं यत्नेन संरक्षेत्। वित्तं (तु) ऐति च याति च।वित्ततः क्षीणः अक्षीणः (भवति) व्रत्ततः तु हतः हतः।

शब्दार्थः : वृत्तम्-चरित्र, वित्तं – धन, यत्नेन- प्रयत्नपूर्वक, संरक्षेत- रक्षा करनी चाहिए, अक्षीण: - जो क्षीण नहीं हुआ



अर्थात

धन तो आता और जाता रहता है (पर) अपने चरित्र की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिए। धन से क्षीण हो जाने पर भी मनुष्य नष्ट नहीं होता; पर यदि उसका चरित्र नष्ट हो गया तो वह संपूर्णतः नष्ट हो गया ।



श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।

आत्मन्: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।। (विदुरनीतिः)

अन्वयः - (भो जनाः) धर्म सर्वस्वं श्रूयताम्। श्रुत्वा च एव अवधार्यताम्। आत्मनः प्रतिकूलानि ( तानि) परेषां न समाचरेत्।

शब्दार्थः श्रूयतां- सुना जाये, धर्मसर्वस्वं- धर्म का सार, अवधार्यताम- समझा जाये

अर्थ:- (हे लोगो) धर्म का सार सुनिये। सुन कर समझ लें कि जो (व्यवहार) अपने लिये प्रतिकूल लगे, उसे दूसरों के प्रति आचरण न करे।

प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।

तस्माद् तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता।। (चाणक्यनीतिः)

अन्वयः :- सर्वे जन्तवः प्रियवाक्यप्रदानेन तुष्यन्ति। तस्मात् तदेव वक्तव्यं। (यतो हि) वचने का दरिद्रता?

शब्दार्थः प्रियवाक्यप्रदानेन - प्रिय वाक्य बोलने से,  तुष्यन्ति- संतुष्ट होते हैं, तदेव- वही, वक्तव्यम –बोलना चाहिए

अर्थ:- सभी प्राणी मधुर वचनों के बोलने से प्रसन्न होते हैं। अतः वैसा ही बोलना चाहिये। (मधुर) बोलने मे कैसी कंजूसी?

पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः।

स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः।

नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः

परोपकाराय सतां विभूतयः।। (सुभाषितरत्नभान्डागारम)

अन्वयः :- नद्यः स्वयमेव अम्भः न पिबन्ति। वृक्षाः स्वयमेव फलानि न खादन्ति। वारिवाहाः सस्यं न अदन्ति। सतां विभूतयः परोपकाराय (भवन्ति)

शब्दार्थः अम्भः- जल, वारिवाहा: -बादल, शस्यम – फसल, अदन्ति- खाते हैं, विभूतयः- समृद्धियां

अर्थ: -नदियाँ स्वयं जल नहीं पीतीं, वृक्ष स्वयं फल नहीं खाते, बादल स्वयं फसल नहीं खाते, सज्जनों की समृद्धि दूसरों की भलाई के लिए होती है ।

गुणेष्वेव हि कर्तव्यः प्रयत्नः पुरुषैः सदा।

गुण्युक्तो दरिद्रो अपि नेश्वरैरगुणेः समः।। (मृच्छकटिकम्)

अन्वयः :- पुरुषैः सदा गुणेषु एव हि प्रयत्नः कर्तव्यः। गुणयुक्तः दरिद्रः अपि अगुणैः ईश्वरैः समः न भवति।

शब्दार्थः कर्तव्यः- करना चाहिए, हि- निश्चित ही, ईश्वरै:- ऐश्वर्यशाली, समः-समान, गुणै:- गुणों से

अर्थ: पुरुषों (मनुष्यों) को गुणप्राप्ति के लिए ही प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि गुणवान धनहीन (व्यक्ति) भी गुणहीन ऐश्वर्यशाली व्यक्तियों के बराबर नहीं होता।(अर्थात वह उससे कहीं अधिक श्रेष्ठ होता है।)

आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण

लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्।

दिनस्य पूर्वार्धपरार्धभिन्ना

छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।। (नीतिशतकम्)

अन्वयः :- खलसज्जनानां  मैत्री दिनस्य पूर्वार्धपरार्धभिन्ना छाया इव आरम्भगुर्वी क्रमेण क्षयिणी, पुरा लघ्वी पश्चात् च वृद्धिमती (भवति)

शब्दार्थः आरम्भगुर्वी- आरम्भ में लम्बी, क्रमेण- धीरे-धीरे, क्षयिणी- घटते स्वभाव वाली, पूरा- पहले, लघ्वी- छोटी, वृद्धिमती – लम्बी होती हुयी, पूर्वार्ध- पूर्वाह्न, अपरार्ध- अपराह्न, छायेव- छाया के समान, भिन्न- अलग-अलग, खल-दुष्ट, सज्जनानाम ।

अर्थ: सज्जन लोगों की मित्रता दिन के परार्ध की छाया के समान शुरू में छोटी और धीरे-धीरे बढ़ने वाली  होती है। दुष्टों की मित्रता दिन के पूर्वार्ध की छाया के समान शुरू में अधिक और क्रमशः क्षीण होने वाली होती है ।

विशेष: सज्जनों की मित्रता शनै:-शनै: प्रगाढ होती है ना कि प्रथम परिचय में ही घनिष्ठता आती है। पर दुष्टों की मित्रता स्वार्थ साधने हेतु होती है, जो आरंभ में घनिष्ठ दिखती है पर काम निकल जाने के बाद धीरे-धीरे क्षीण हो जाती है।

 यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु-

हंसा मही मण्डलमण्डनाय।

हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां

येषां मरालैः सः विप्रयोगः।। (भामिनीविलासः)

अन्वयः हंसा: महीमंडलनाय यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु:। हानि तु तेषाम् सरोवराणाम् भवति, येषाम् मरालै: सह विप्रयोग: (भवति)

शब्दार्थः महिमंडल- पृथ्वी, मण्डनाय- सुशोभित करने के लिए, गताः चले जाने वाले, भवेयु: होने चाहिए, मरालै: - हंसों से, विप्रयोगः- अलग होना, हानिः- हानि, तेषाम्- उनका, येषाम्- उनका

अर्थ: पृथ्वी तल को सुशोभित करने के लिए हंस जहां कहीं भी चले जाएंगे (उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता)। पर हानि तो उन तालाबों की होती है जिनका हंसों के साथ वियोग होता है।

विशेष : गुणवान व्यक्ति कहीं भी रहे, वह अपने गुणों से संसार को लाभान्वित ही करेगा, पर वह जिस स्थान से चला जाएगा, वह स्थान निश्चय ही उसके अभाव का अनुभव करेगा और उसके लाभों से वंचित हो जाएगा।

गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्तिWatch this video for further explanation

ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः।

आस्वाद्यतोयाः प्रवहन्ति नद्यः

समुद्रमासाध्य भवन्त्यपेयाः।। (हितोपदेशः)

अन्वयः : गुणा: गुणज्ञेसु गुणा: भवंति, निर्गुणं प्राप्य ते दोषाः भवन्ति। आस्वाद्यतोया: नद्यः प्रवहन्ति, ते समुद्रम् आसाद्य अपेयाः भवन्ति।

शब्दार्थः गुणज्ञेषु- गुणों को जानने वालों में,(गुणवान), निर्गुणं- गुणहीन, दोषाः- दुर्गुण, आस्वाद्यतोया:- स्वादयुक्त जल वाली, आसाद्य- प्राप्त करके, प्रवहन्ति- बहती हैं, नद्यः- नदियाँ, अपेयाः न पीने योग्य, प्राप्य- प्राप्त करके, भवन्ति-हो जाती हैं।

अर्थ: गुण को जानने पहचानने वालों के लिए ही वास्तव में गुण, गुण होते हैं, गुणहीनों के लिए तो वे दोष ही होते हैं। नदियाँ स्वादिष्ट जल के साथ बहती रहती हैं पर समुद्र में मिलकर वह भी पीने योग्य नहीं रह जातीं।

विशेष: किसी का गुण से पहचानने वालों के लिए ही विशिष्ट होता है। जिसमें गुणों को पहचानने की सामर्थ्य नहीं है उसके लिए गुण भी दो के समान होते हैं। इसकी उपमा विष्णु शर्मा ने नदी के स्वादिष्ट जल और समुद्र के संसर्ग से उसके अपेय होने से दी है




35 comments:

  1. Really very helpful!
    Deserves 5 star rating!

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  2. I like the site and the idea of spreading sanskrit through the site

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  3. I really appreciate from this video

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  4. kya me yah vidio download kar sakta hu

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  5. Really very helpful 👍🏻👍🏻👍🏻👍🏻👍🏻👍🏻

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  6. Really very helpful.
    Thank you Krishna classes

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  7. अर्थः व्याख्या च बहु शोभनम् कृता

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  8. Wah sahi kaha hai in shalokon men bahut hi sachi batte

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