Paryavaranam, पर्यावरणम् , class 9 shemushi chapter 11
प्रकृति: समेषां
प्राणिनां संरक्षणाय यतते|इयं सर्वान् पुष्णाति
विविधैः प्रकारै:, तर्पयति च सुखसाधनैः| पृथिवी, जलं, तेजो, वायु:, आकाशश्चास्या: प्रमुखानि तत्वानि|
तान्येव मिलित्वा पृथक्तया वाऽस्माकं पर्यावरणं रचयन्ति| आव्रियते परितः समन्तात् लोकोऽनेनेति पर्यावरणम्|
यथाऽजातशिशु: मातृगर्भे सुरक्षितस्तिष्ठति तथैव मानवः पर्यावरणकुक्षौ| परिष्कृतं
प्रदूषणरहितं च पर्यावरणमस्मभ्यं सान्सारिकं जीवनसुखम्, सद्विचारं, सत्यसङ्कल्पं,
माङ्गलिकसामग्रीञ्च प्रददाति|प्रकृतिकोपैः आतङ्कितो जनः किं कर्तुं प्रभवति? जलप्लावनैः,
अग्निभयैः, भूकंपैः, वात्याचक्रै:, उल्कापातादिभिश्च संतप्तस्य मानवस्य क्व
मङ्गलम्?
१.
प्रकृति: केषाम संरक्षणाय यतते?
प्राणिनां
२.
का विविधैः प्रकारै: सर्वान्
पुष्णाति च तर्पयति? प्रकृति:
३.
प्रकृति: कथं रक्षणं करोति? यथाऽजातशिशु:
मातृगर्भे सुरक्षितस्तिष्ठति तथैव मानवः पर्यावरणकुक्षौ रक्षणं करोति|
४.
प्रकृतिकोपैः जनः कथं आतङ्कित:
भवति? प्रकृतिकोपैः जलप्लावनैः, अग्निभयैः, भूकंपैः, वात्याचक्रै:,
उल्कापातादिभिश्च जनः आतङ्कित: भवति|
५.
‘इयं सर्वान् पुष्णाति’, अत्र
इयं पदं कस्यै प्रयुक्तम्? प्रकृति:
६.
‘शुद्धं’ इति पदस्य पर्यायपदं
गद्यान्शे किम् प्रयुक्तम्? परिष्कृतं
७.
‘प्रददाति’ इति क्रियापदस्य
कर्तृपदस्य किम्? पर्यावरणम्
८.
‘कुविचारम्’ इति पदस्य विलोम
पदम् गद्यान्शे किम्? सद्विचारं
शब्दार्थः
यतते= कोशिश करती है
संरक्षणाय= रक्षा के लिये
पुष्णाति= पोषण करती है
तर्पयति= त्रप्त करती है
तेज= अग्नि
आव्रियते= आच्छादित किया जाता है
परितः= चारों तरफ से
समन्तात्= चारों तरफ से
अजातशिशुः= अजन्मा शिशु
मातृगर्भे= माता के गर्भ में
कुक्षौ= गर्भ में
परिष्कृतं= शुद्ध
लोकः= संसार
सुरक्षितं= सुरक्षित
प्रदूषणरहितम्= प्रदूषण से रहित
सद्विचारं=अच्छे विचार
सत्यसंकल्पं=अच्छे संकल्प
माङ्गलिकसामग्रीम् = मङ्गल सामग्री
प्रकृतिकौपैः= प्रकृति के गुस्से से
अतङ्कितः= व्याकुल
प्रभवति= समर्थ है
जलप्लावनै:= बाढों से
भूकंपैः=भूचालों से
वात्यचक्रै:= आँधी, बवन्डर
उल्कापातादिभि: = उल्का आदि के गिरने से
संतप्त= दुखी
क्व= कहाँ
मङ्गलम्= कल्याण
संधि विच्छेद
आकाशश्चास्या: = आकाशः+च+अस्या:
वाऽस्माकं= वा+ अस्माकम्
लोकोऽनेनेति= लोकः+ अनेन+इति
सुरक्षितस्तिष्ठति = सुरक्षित:+तिष्ठति
पर्यावरणमस्मभ्यं= पर्यावरणम्+ अस्मभ्यम्
सामग्रीञ्च= सामग्रीम्+ च
उल्कापातादिभिश्च+ उल्कापात+आदिभि:+च
तान्येव= तानि+ एव
पर्यावरणं = परि+ आवरणम्
यथाऽजातशिशु:= यथा+अजातः+ शिशु:
तथैव= तथा+एव
सद्विचारं= सत्+ विचारम्
आतङ्कितो जन:= आतं+कितः+जनः
विषेषण -विशेष्य
विविधैः प्रकारै:
प्रमुखानि तत्वानि
आतङ्कित: जनः
समेषां प्राणिनां
विविधैः सुखसाधनैः
सान्सारिकं जीवनसुखं
इयं प्रकृति
अतएव
प्रकृतिरस्माभि: रक्षणीया| तेन च पर्यावरणम् रक्षितं भविष्यति| प्राचीनकाले
लोकमङ्गलाशन्सिनः ऋषयो वने निवसन्ति स्म|यतो हि वने एव सुरक्षितं
पर्यावरणमुपलभ्यते स्म|विविधा विहगाः कलकूजितैस्तत्र
श्रोत्ररसायनं ददति|सरितो गिरिनिर्झराश्च अमृतस्वादु निर्मलं
जलं प्रयच्छन्ति| वृक्षा लताश्च फलानि पुष्पाणि इन्धनकाष्टानि च बाहुल्येन
समुपहरन्ति|शीतलमन्दसुगन्धवनपवना औषधकल्पं प्राणवायुं वितरन्ति|
१.
प्रकृति: केन रक्षणीया?
अस्माभिः
२.
के श्रोत्ररसायनं ददति? विहगा:
३.
प्राचीनकाले कीदृशा लोकमङ्गलाशन्सिनः
ऋषय: वने निवसन्ति स्म? प्राचीनकाले लोकमङ्गलाशन्सिनः ऋषय: वने निवसन्ति स्म
४.
प्राणवायुं के वितरन्ति? शीतलमन्दसुगन्धवनपवना
औषधकल्पं प्राणवायुं वितरन्ति|
५.
‘आधुनिककाले’ इति पदस्य विलोम पदम् गद्यान्शे किम्? प्राचीनकाले
६.
‘विविधा विहगाः’ अत्र विशेषणपदं
किम्? विविधाः
७.
‘अस्माभि:’ पदं कस्मै प्रयुक्तम्? जनैः
८.
‘सरिता’ इति कर्तृपदस्य क्रियापदस्य किम्?
प्रयच्छति
परन्तु स्वार्थान्धो मानवस्तदेव पर्यावरणमद्य
नाशयति|स्वल्पलाभाय जना बहुमूल्यानि वस्तूनि नाशयन्ति|यन्त्रागाराणां विषाक्तं जलं
नद्यां निपात्यते येन मत्स्यादीनां जलचराणां च क्षणेनैव नाशो जायते| नदीजलमपि
तत्सर्वथाऽपेयं जायते| वनवृक्षा निर्विवेकं छिद्यन्ते व्यापारवर्धनाय, येन
अवृष्टि: प्रवर्धते, वन्पशवश्च शरणरहिता ग्रामेषु उपद्रवं विदधति|शुद्धवायुरपि
वृक्षकर्तनात् सन्कटापन्नो जातः| एवं हि स्वार्थान्ध मानवैर्विकृतिमुपगता
प्रकृतिरेव तेषां विनाशकत्री सञ्जाता| पर्यावरणे विकृतिमुपगते जायन्तेविविधा रोगा
भीषणसमस्याश्च|तत्सर्वमिदानीं चिन्तनीयं प्रतिभाति|
१.
कीदृश: मानवः अद्य पर्यावरणं
नाशयति? स्वार्थान्ध:
२.
कस्याः जलम सर्वथा अपेयं जायते?
नद्याः
३.
वृक्षकर्तनात् कीदृशम्
सन्कटापन्नो जातः? वृक्षकर्तनात् शुद्धवायुरपि सन्कटापन्नो जातः|
४.
यन्त्रागाराणां विषाक्तं जलं किम्
करोति? यन्त्रागाराणां विषाक्तं जलं नद्यां निपात्यते येन मत्स्यादीनां जलचराणां
च क्षणेनैव नाशो जायते|
५.
बहुलाभाय’ अस्य पदस्य किं विलोमपदं
गद्यान्शे प्रयुक्तम्? स्वल्पलाभाय
६.
सञ्जाता’ इति क्रियापदस्य
कर्तृपदस्य किम्? प्रकृति
७.
‘विविधा: रोगा:’ अत्र विशेष्य
पदं किम्? रोगा:
८.
‘येन’ पदं कस्मै प्रयुक्तम्? विषाक्त
जलाय|
शब्दार्थः
अतएव= इसलिये
रक्षणीया= रक्षा करने योग्य
प्राचीनकाले= पुराने समय में
लोकमङ्गलाशन्सिनः= समाज का कल्याण चाहने वाले
ऋषयः= ऋषि
निवसन्ति स्म= रहते थे
यतः= क्योंकि
उपलभ्यते= प्राप्त होता है
विहगाः = पक्षी
कलकुजितैः =मधुर कूजन से
श्रोत्र रसायनम्= कानों को अच्छा लगने वाला
ददति=देते हैं
सरितः= नदियाँ
गिरिनिर्झरा =पर्वतीय झरने
अमृतस्वादु=अमृत के समान स्वादिष्ट
निर्मलम्= स्वच्छ
बाहुल्येन= अधिकता
औषधकल्पम्= दवाई के समान
वितरन्ति= बाँटते हैं
इन्धन काष्टानि= जलाने की लकडी
संधि विच्छेद
प्रकृतिरस्माभि:= प्रकृति:+अस्माभि:
यतो हि= यतः हि
लोकमङ्गलाशन्सिनः =लोकमङ्गल +अशन्सिनः
कलकूजितैस्तत्र= कलकूजितैः +तत्र
गिरिनिर्झराश्च = गिरिनिर्झरा:+च
समुपहरन्ति= सम्+ उपहरन्ति
पर्यावरणमुपलभ्यते=पर्यावरम्+उपलभ्यते
सरितो= सरितः
लताश्च= लता:+ च
विषेषण -विशेष्य
विविधा विहगाः
निर्मलं जलं
शीतल:/मन्द: वनपवन:
सुगन्ध: वनपवन:
शब्दार्थः
अद्य= आज
नाशयति= नष्ट कर रहा है
स्वल्पलाभाय= थोङे से लाभ के लिये
यन्त्रागाराणां=कारखानों के
विषाक्तं= विषैला
निपात्यते= फेंका जाता है
जलचराणां= पानी में रहने वाले जीवों का
अपेयं = न पीने योग्य
जायते= हो जाता है
निर्विवेकम्= व्यर्थ ही,
बगैर सोचे समझे
अवृष्टि:= वर्षा की कमी
प्रवर्धते= बढती है
वनपशव:= जङ्गली पशु
शरणरहिता:= बिना आश्रय के
वृक्षकर्तनात् = पेङों के काटने से
उपद्रवं = भय
विदधति= करते हैं
संकतापन्नो= संकटयुक्त
जातः= हो जाती है
विकृतिम्= विकारयुक्त
उपगता= हो गयी है
विनाशकत्री= विनाश करने वाली
सञ्जाता= हो गयी है
इदानीम= अब
चिन्तनीयम्= चिन्ता से युक्त
प्रतिभाति= प्रतीत हो रहा है
संधि विच्छेद
यन्त्रागाराणाम्= यन्त्र+ आगाराणाम्
मानवस्तदेव= मानवः+तदा+एव
मत्स्यादीनां= मत्स्य+ आदीनां
नदीजलमपि= नदीजलम्+ अपि
निर्विवेकम्= निः+ विवेकम्
शुद्धवायुरपि= शुद्धः+ वायुः+ अपि
स्वार्थान्धो= स्वार्थ:+अन्ध:
पर्यावरणमद्य= परि+ आवरणम्+अद्य
क्षणेनैव = क्षणेन+एव
तत्सर्वथाऽपेयं = तत्+ सर्वथा + अपेयम्
सन्कटापन्नो = संकट+ आपन्नः
र्विकृतिमुपगता= विकृतिम्+उपगता
प्रकृतिरेव= प्रकृति+ एव
सञ्जाता= सम्+ जात
भीषणसमस्याश्च= भीषण+समस्याः+च
तत्सर्वमिदानीं= तत्+ सर्वम्+ इदानीम्
विषेषण -विशेष्य
बहुमूल्यानि वस्तूनि
विषाक्तं जलं
विविधा: रोगा:
चिन्तनीयं प्रतिभाति|
धर्मो रक्षति
रक्षितः इत्यार्षवचनं| पर्यावरणरक्षणमपि धर्मस्यैवांङमिति ऋषयः प्रतिपादितवन्त:|
तत एव वापीकूपतडागादिनिर्माणं देवायतनविश्रामगृहादिस्थापनञ्च धर्मसिद्धेः
स्रोतोरुपेणाङगीकृतम्|कुक्कुरसूकरसर्पनकुलादिस्थलचरा, मत्स्यकच्छपमकरप्रभृतयो
जलचराश्चापि रक्षणीया:, यतस्ते स्थलमलापनोदिनो जलमलापहारिणश्च|प्रकृतिरक्षयैव
सम्भवति लोकरक्षेति न संशयः|
१. धर्मो
रक्षति रक्षितः इति कीदृश: वचनं? आर्षवचनम्
२. पर्यावरणरक्षणं
कस्य अङ्गम् ? धर्मस्य|
३. आर्षवचनम् किम्? धर्मो
रक्षति रक्षितः इति आर्षवचनम् अस्ति|
४. लोकरक्षा कथं सम्भवति?
प्रकृति रक्षया एव लोकरक्षा सम्भवति |
५. देवालय:’
इत्यर्थे किम् पदं प्रयुक्तम्? देवायतन
६. ‘स्थलचरा:’
इति पदस्य विलोम पदं किम्? जलचराः
७. ‘प्रतिपादितवन्तः’
इति क्रियापदस्य कर्तृपदं किम्? ऋषयः
शब्दार्थः
रक्षित= रक्षा किया गया
रक्षति= रक्षा करता है
आर्षवचनं= ऋषियों के वचन
प्रतिपादितवन्त:= प्रतिपादित किया गया है
वापी= बावङी
कूप=कुएँ
तडाग=तालाब
देवायतन= मंदिर
विश्रामगृहादिस्थापन= विश्रामगृह बनवाना
संशय= संदेह
धर्मसिद्धेः=धर्म की सिद्धि के
अङगीकृतम्= माने गये हैं
कुक्कुरः= कुत्ता
नकुलः= नेवला
सर्पः= साँप
स्थलचरः= पृथ्वी पर रहने वाले जीव
सूकरः= सुअर
मत्स्यः= मछली
कच्छपः= कछुआ
मकरः= मगरमच्छ
जलचरः = पानी में रहने वाले जीव
स्थलमलापनोदिनो=पृथ्वी की गन्दगी को दूर करने वाले
लोकोरक्षेति= संसार की रक्षा
संधि विच्छेद
इत्यार्षवचनं = इति+ आर्ष+ वचनम्
पर्यावरणरक्षणमपि= पर्यावरण+रक्षणम+अपि
धर्मस्यैवांङमिति= धर्मस्य+एव+अङ्गम्+इति
गृहादिस्थापनञ्च= गृह+ आदि+स्थापनम्+च
नकुलादिस्थलचरा= नकुल+ आदि+ स्थलचरा
तडागादिनिर्माणं= तडाग+आदि+निर्माणम्
स्रोतोरुपेणाङगीकृतम्= स्रोतः+रुपेणः+अङ्गीकृतम्
मकरप्रभृतयो= मकरः+ प्रभृतयः
स्थलमलापनोदिनो= स्थलमल+अपनोदिनः
जलमलापहारिणश्च= जलमल+अपहारिणः+च
प्रकृतिरक्षयैव= प्रकृति+रक्षया+एव
लोकरक्षेति =लोकरक्षा+इति
विषेषण -विशेष्य
रक्षितः धर्मः
सब प्राणियों की रक्षा के लिए प्रयत्न करती है| यह विभिन्न प्रकार से सब को
पुष्ट करती है तथा सुख साधन से तृप्त करती है| पृथ्वी जल, तेज, वायु और आकाश, यह
इसके प्रमुख तत्व हैं |यह मिल कर या अलग अलग हमारे पर्यावरण को बनाते हैं| संसार
जिसके द्वारा सब ओर से आच्छादित किया जाता है वह पर्यावरण कहलाता है| जिस प्रकार
अजन्मा शिशु अपनी माता के गर्भ में सुरक्षित रहता है उसी प्रकार मनुष्य पर्यावरण
की कोख में सुरक्षित रहता है| परिष्कृत तथा प्रदूषण से रहित पर्यावरण हमें
सांसारिक जीवन सुख अच्छे विचार अच्छे संकल्प तथा मांगलिक सामग्री देता है| प्रकृति
के क्रोध से व्याकुल मनुष्य क्या कर सकता है? बाढ़ अग्नि भूकंप आंधी तूफान तथा उल्का
आदि के गिरने से संतप्त मानव का कहां कल्याण है अर्थात कहीं नहीं| इसलिए हमें प्रकृति
की रक्षा करनी चाहिए| उससे पर्यावरण अपने आप सुरक्षित हो जाएगा| प्राचीन काल में
जनता का कल्याण चाहने वाले ऋषि वन में हीं रहते थे क्योंकि वन में ही सुरक्षित
पर्यावरण प्राप्त होता था| अनेक प्रकार के पक्षी अपने मधुर कूजन से वहां कानों को
अमृत प्रदान करते हैं |नदियां तथा पर्वतीय झरने अमृत के समान स्वादिष्ट और पवित्र
जल देते हैं| पेड़ तथा लताएं फल फूल तथा इंधन की लकड़ी बहुत मात्रा में देते हैं |उनकी
शीतल मंद तथा सुगंधित वायु औषध के समान प्राणवायु बांटते हैं| किंतु स्वार्थ में
अंधा हुआ मनुष्य उसी पर्यावरण को आज नष्ट कर रहा है |थोड़े से लाभ के लिए लोग
बहुमूल्य वस्तुओं को नष्ट कर रहे हैं| कारखानों का विषैला जल नदियों में गिराया जा
रहा है जिससे मछली आदि जलचरों का क्षण भर में ही नाश हो जाता है नदियों का पानी भी
सर्वथा ना पीने योग्य हो जाता है| वन के पेड़ व्यापार बढ़ाने के लिए अंधाधुंध काटे
जाते हैं जिससे दृष्टि में वृद्धि होती है तथा वन के पशु असहाय होकर गांवों में
उपद्रव उत्पन्न करते हैं पेड़ों के कट जाने से शुद्ध वायु भी दुर्लभ हो गई है| इस
प्रकार स्वार्थ में अंधे मनुष्य के द्वारा विकार युक्त प्रकृति ही उनकी विनाशिनी
हो गई है पर्यावरण में विकार आ जाने से भयंकर रोग विभिन्न रोग तथा भयंकर समस्याएं
उत्पन्न हो रही है इसलिए सब कुछ चिंता युक्त प्रतीत हो रहा है| रक्षा किया गया
धर्म रक्षा करता है यह ऋषियों के वचन हैं| पर्यावरण की रक्षा करना भी धर्म का ही
अंग है, ऐसा ऋषियों ने प्रतिपादित किया है| इसलिए बावड़ी, कुएं, तालाब आदि बनवाना,
मंदिर, विश्राम गृह की स्थापना, धर्मसिद्धि के साधन के रूप में ही माने गए हैं|
कुत्ते, सूअर, सांप, नेवले आदि स्थलचरों तथा मछली, कछुआ, मगरमच्छ आदि जलचरों की
रक्षा करनी चाहिए क्योंकि यह पृथ्वी तथा जल की मलिनता को दूर करने वाले हैं। प्रकृति की रक्षा से ही
संसार की रक्षा हो सकती है।