वाङ्मनः प्राणस्वरुपम्
श्वेतकेतुः – भगवन्!
श्वेतकेतुरहं वन्दे|
आरुणि: - वत्स चिरञ्जीव|
श्वेतकेतुः – भगवन्!
किञ्चित्प्रष्टुमिच्छामि|
आरुणि: -वत्स किमद्य
त्वया प्रष्टव्यमस्ति?
श्वेतकेतुः – भगवन्!
प्रष्टुमिच्छामि किमिदं मनः?
आरुणि: - वत्स! अशितस्यान्नस्य
योऽणिष्ठ: तन्मनः|
शब्दार्थः
वन्दे= प्रणाम करता हूँ|
चिरञ्जीव= लम्बी आयु प्राप्त करो
किञ्चित्= कुछ
प्रष्टुम= पूछना
इच्छामि= चाहता हूँ
अद्य= आज
प्रष्टव्यम=पूछना चाहते
हो
इदम्= यह
किम्= क्या
मनः= मन, चित्त
अशितस्य= खाये गये
अणिष्ठ: = सबसे छोटा
अन्नस्य= भोजन का
यः= जो
तत्= वह
संधि विच्छेद:
श्वेतकेतुरहं = श्वेतकेतु:+अहम्
किञ्चित्= किम्+चित्
किमद्य= किम्+अद्य
किमिदं= किम्+ इदम्
योऽणिष्ठ:= य:+ अणिष्ठ:
चिरञ्जीव= चिरम्+ जीव
प्रष्टुमिच्छामि= प्रष्टुम+इच्छामि
प्रष्टव्यमस्ति = प्रष्टव्यम+अस्ति
अशितस्यान्नस्य= अशितस्य+
अन्नस्य
तन्मन:= तत्+मनः
श्वेतकेतुः – कश्च
प्राणः?
आरुणि: - पीतानाम् अपां
योऽणिष्ठ: सः प्राणः|
श्वेतकेतुः – भगवन्!
केयं वाक्?
आरुणिः – वत्स! अशितस्य
तेजसा योऽणिष्ठ: सा वाक्| सौम्य! मनः अन्नमयं, प्राणः आपोमयः वाक् च तेजोमयी भवति
इत्यप्यवधार्यम्|
श्वेतकेतुः – भगवन्! भूय
एव मां विज्ञापयतु|
आरुणि: - सौम्य!सावधानम् श्रुणु| मध्यमानस्य दध्नः योऽणिमा, स ऊर्ध्व: समुदीषति|तत्सर्पि:भवति|
श्वेतकेतुः – भगवन्| व्याख्यातं भवता घृतोत्पत्तिरहस्यम्|
भूयोऽपि श्रोतुमिच्छामि|
आरुणि: - एवमेव सौम्य!
अश्यमानस्य अन्नस्य योऽणिमा स उर्ध्व: समुदीषति| तन्मनो भवति| अवगतम् न वा?
शब्दार्थः
अन्नमयं= अन्न से बना
हुआ
पीतानाम्= पिये हुए के
अपाम्= पानी का
अणिष्ठ:= सबसे छोटा
वाक्=
श्वेतकेतुः – सम्यगवगतमं
भगवन्|
आरुणि: -पीयमानानाम् अपां
योऽणिमा स उर्ध्व: समुदीषति स एव
प्राणो भवति|
श्वेतकेतुः – भगवन्!
वाचमपि विज्ञापयतु|
आरुणि: - सौम्य! अश्यमानस्य तेजसो
योऽणिमा, स उर्ध्व: समुदीषति| सा
खलु वाग्भवति भवति| वत्स! उपदेशान्ते भूयोऽपि त्वां विज्ञापयितुमिच्छामि
यदन्न्मयं भवति मनः, आपोमयो भवति प्राणस्तेजोमयी च भवति वागिति|किञ्च यादृशमन्नादिकं गृह्णाति मानवस्तादृश्मेव तस्य चित्तादिकं
भवतीति मदुपदेशसारः|वत्स! एतत्सर्वम् हृदयेन अवधारय|
श्वेतकेतुः –
यदाज्ञापयति भगवन्|एष प्रणमामि|
आरुणि: - वत्स
चिरञ्जीव|तेजस्वि नौ अधीतम् अस्तु|
श्वेतकेतु- हे भगवन! मैं
श्वेतकेतु आपको प्रणाम करता हूं|
आरुणि- हे पुत्र दीर्घायु हो|
श्वेतकेतु- हे भगवन! मैं
कुछ पूछना चाहता हूँ ?
आरुणि- हे पुत्र! आज तुम
क्या पूछना चाहते हो?
श्वेतकेतु- हे भगवन! मैं
पूछना चाहता हूं कि यह मन क्या है? आरुणि- हे पुत्र पूर्णत: पचाए गए अन्य का सबसे
छोटा भाग मन होता है|
श्वेतकेतु- और प्राण
क्या है?
आरुणि- पिए गए तरल
द्रव्यों का सबसे छोटा भाग प्राण होता है|
श्वेतकेतु- हे भगवन!
वाणी क्या है?
आरुणि- हे पुत्र! ग्रहण
की गई उर्जा का जो सबसे छोटा भाग है, वह वाणी है| हे सौम्य! मन अन्नमय, प्राण जलमय वाणी तेजोमयी होती है-यह भी समझ
लेना चाहिए|
श्वेतकेतु- हे भगवन! आप
मुझे पुनः समझाइए|
आरुणि- हे सौम्य! ध्यान
से सुनो| मथे जाते हुए दही की अणिमा (मलाई) ऊपर तैरने लगती है, उसका घी बन जाता है|
श्वेतकेतु- हे भगवन! आपने तो घी की उत्पत्ति का रहस्य समझा दिया| मैं और भी सुनना
चाहता हूं|
आरुणि- सौम्य! इसी तरह
खाए जाते हुए अन्न की अणिमा (मलाई) ऊपर
उठती है, वह मन बन जाती है, समझ गए या नहीं?
श्वेतकेतु- अच्छी तरह
समझ गया भगवन|
आरुणि- हे पुत्र पिये जाते हुए जल की अणिमा
प्राण बन जाती है |
श्वेतकेतु- हे भगवन वाणी
के बारे में भी समझाएं|
आरुणि- हे सौम्य! शरीर
द्वारा ग्रहण किए गए तेज (ऊर्जा) की अणिमा
वाणी बन जाती है| हे पुत्र! उपदेश के अंत में मैं तुम्हें पुनः यही समझाना चाहता
हूं कि अन्न का सार तत्व मन, जल का प्राण तथा तेज का वाणी है| इसके अतिरिक्त अधिक
क्या, मेरे उपदेश का सार यही है कि मनुष्य जैसा अन्न ग्रहण करता है, उसका मन,
बुद्धि और अहंकार(चित्त) वैसा ही बन जाता है| हे पुत्र! इस सब को हृदय में धारण कर
लो| (अच्छी प्रकार से समझ लो) श्वेतकेतु- जैसी आपकी आज्ञा भगवन! मैं आपको प्रणाम
करता हूँ|
आरुणि- हे पुत्र!
दीर्घायु हो| तुम्हारा अध्ययन तेजस्विता से युक्त हो|
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