रसखान कृष्ण के भक्त थे और प्रभु श्रीकृष्ण के
सगुण और निर्गुण निराकार रूप के उपासक थे। रसखान ने कृष्ण की सगुण रूप की लीलाओं
का बहुत ही खूबसूरत वर्णन किया है. जैसे- बाललीला, रासलीला,
फागलीला, कुंजलीला आदि।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने एकबार कुछ मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था: “इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए” | उनके मत में “रसखान” का नाम भक्तकालीन मुसलमान कवियों में सर्वोपरि है। रसखान का जन्म संवत् 1590 ई. मानना अधिक उचित प्रतीत होता है। अकबर का राज्यकाल 1556-1605 है, ये लगभग अकबर के समकालीन हैं। रसखान का जन्मस्थान ‘पिहानी’ कुछ लोगों के मतानुसार दिल्ली के समीप है। कुछ और लोगों के मतानुसार यह ‘पिहानी’ उत्तर प्रदेश के हरदोई ज़िले में है। कवि रसखान की मृत्यु के बारे में कोई प्रामाणिक तथ्य नहीं मिलते हैं।
रसखान का असली नाम सैयद इब्राहिम था और “खान’
उसकी उपाधि थी। नवलगढ़ के राजकुमार संग्राम सिंह द्वारा प्राप्त रसखान के चित्र पर
नागरी लिपि के साथ-साथ फ़ारसी लिपि में भी एक स्थान पर “रसखान’ तथा दूसरे स्थान पर
“रसखाँ’ ही लिखा पाया गया है।
फ़ारसी कवि अपना नाम संक्षिप्त रखते थे| इसी तरह रसखान ने भी अपने नाम खान के पहले “रस’ लगाकर स्वयं को रस से भरे
खान या रसीले खान की धारणा के साथ काव्य-रचना की। उनके जीवन में रस की कमी न थी। पहले
लौकिक रस का आस्वादन करते रहे, फिर अलौकिक रस में लीन होकर
काव्य रचना करने लगे। एक स्थान पर उनके काव्य में “रसखाँ’ शब्द का प्रयोग भी मिलता
है। ।
रसखान के पिता एक जागीरदार थे। इसलिए इनका
लालन पालन बड़े लाड़-प्यार से हुआ माना जाता है। ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि उनके
काव्य में किसी विशेष प्रकार की कटुता का सरासर अभाव पाया जाता है।
एक
संपन्न परिवार में पैदा होने के कारण उनकी शिक्षा अच्छी और उच्च कोटि की हुयी थी।
उनकी यह विद्वत्ता उनके काव्य की अभिव्यक्ति में जग ज़ाहिर है. रसखान को फ़ारसी,
हिंदी एवं संस्कृत का अच्छा ज्ञान था। उन्होंने “श्रीमद्भागवत’ का फ़ारसी में अनुवाद किया था। इसको देख कर इस बात का सहज
अनुमान लगाया जा सकता है कि वह फ़ारसी और हिंदी भाषाओं के अच्छे जानकर रहे होंगे
अब्राहम जार्ज ग्रियर्सन ने लिखा है कि रसखान
बाद में वैष्णव होकर ब्रज में रहने लगे थे। इसका वर्णन ‘भक्तमाल’ में है।
मानुष
हौं तो वही रसखानि, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वालन।
जो पसु हौं तो कहा बसु मेरो, चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धरयौ कर छत्र पुरन्दर धारन।
जो खग हौं बसेरो करौं मिल, कालिन्दी-कूल-कदम्ब की डारन।।
कहा जाता है कि एक समय वे कहीं भागवत कथा में उपस्थित थे। व्यासगद्दी के पास श्यामसुन्दर का चित्र रखा हुआ था। उनके नयनों में भगवान का रूपमाधुर्य समा गया। उन्होंने प्रेममयी मीठी भाषा में व्यास से भगवान श्रीकृष्ण का पता पूछा और ब्रज के लिये चल पड़े। रासरसिक नन्दनन्दन से मिलने के लिये विरही कवि का हृदय-बीन बज उठा। ब्रजरज का मस्तक से स्पर्श होते ही, भगवती कालिन्दी के जल की शीतलता के स्पर्श-सुख से वे अपनी सुधि-बुधि खो बैठे। संसार छूट गया, भगवान में मन रम गया। वे कह उठे-
या लकुटी अरु कामरिया पर राज
तिहू पुर कौ तजि डारौं।
आठहु सिद्धि नवौं निधि कौ सुख नंद की गाय चराय बिसारौं।।
'रसखान' सदा इन नयनन्हिं सौं ब्रज के बन बाग
तड़ाग निहारौं।
कोटिन हू कलधौत के धाम करील की कुंजन ऊपर वारौं।।
कितना अद्भुत आत्मसमर्पण था, भावमाधुर्य था।
प्रेमसुधा का निरन्तर पान करते वे ब्रज की शोभा देख रहे थे।
उनके पैरों में विरक्ति की बेड़ी थी, हाथों में अनुरक्ति की
हथकड़ी थी, हृदय में भक्ति की बन्धन-मुक्ति थी। रसखान के
दर्शन से ब्रज धन्य हो उठा। ब्रज के दर्शन से रसखान का जीवन सफल हो गया।
कृष्ण-भक्ति ने उन्हें ऐसा मुग्ध कर दिया कि
गोस्वामी विट्ठलनाथ से दीक्षा ली और ब्रजभूमि में जा बसे। सन् 1628
के लगभग उनकी मृत्यु हुई। सुजान रसखान और प्रेमवाटिका उनकी उपलब्ध
कृतियाँ हैं। प्रमुख कृष्णभक्त कवि रसखान की अनुरक्ति न केवल कृष्ण के प्रति प्रकट
हुई है बल्कि कृष्ण-भूमि के प्रति भी उनका अनन्य अनुराग व्यक्त हुआ है। उनके काव्य
में कृष्ण की रूप-माधुरी, ब्रज-महिमा, राधा-कृष्ण
की प्रेमलीलाओं का मनोहर वर्णन मिलता है। वे अपनी प्रेम की तन्मयता, भाव-विह्नलता और आसक्ति के उल्लास के लिए जितने प्रसिद्ध हैं उतने ही अपनी
भाषा की मार्मिकता, शब्द-चयन तथा व्यंजक शैली के लिए। उनके
यहाँ ब्रजभाषा का अत्यंत सरस और मनोरम प्रयोग मिलता है, जिसमें
ज़रा भी शब्दाडंबर नहीं है।
देख्यो रुप अपार मोहन सुन्दर स्याम को।
वह ब्रज राजकुमार हिय जिय नैननि में बस्यो।
दोहे का अर्थ-👇 इस
दोहे में कवि रसखान जी कहते हैं कि अति सुंदर ब्रज के राजकुमार श्री कृष्ण उनके
हृदय,
मन, मिजाज,जी, जान और आंखों में निवास बना कर बस गए हैं। मोहन छवि रसखानि लखि अब दृग
अपने नाहिं
उंचे आबत धनुस से छूटे सर से जाहिं।
दोहे का अर्थ-👇 इस
दोहे में रसखान कहते हैं कि मदन मोहन कृष्ण की सुंदर रुप छटा देखने के बाद अब ये
आँखें मेरी नही रह गई हैं जिस तरह धनुष से एक बार बाण छूटने के बाद अपना नही रह
जाता है। और तीर फिर दोबारा लौटकर नहीं आताहै, वापिस नही
होता है।
मो मन मानिक लै गयो चितै चोर नंदनंद
अब बेमन मैं क्या करुं परी फेर के फंद।
दोहे का अर्थ-👇
इस दोहे में भगवान श्री कृष्ण के प्रति अपनी
प्रेम भावना उजागर करते हुए कहते हैं कि मेरे मन का माणिक्य रत्न तो चित्त को
चुराने बाले नन्द के नंदन श्री कृष्ण ने चोरी कर लिया है। अब बिना मन के वे क्या
करें। वे तो भाग्य के फंदे के-फेरे में पड़ गये हैं। अब तो बिना समर्पण कोई उपाय
नही रह गया है। अर्थात जब उनका मन ही श्री कृष्ण के पास है तो वे पूरी तरह से
समर्पित हो चुके हैं।
बंक बिलोचन हंसनि मुरि मधुर बैन रसखानि
मिले रसिक रसराज दोउ हरखि हिये रसखानि।
दोहे का अर्थ-👇
इस दोहे में कवि रसखान जी कहते हैं कि तिरछी
नजरों से देखकर मुस्कुराते और मीठी बोली बोलने बाले मनमोहन कृष्ण को देखकर उनका
हृदय आनन्दित हो जाता है। अर्थात जब रसिक और रसराज कृष्ण मिलते हैं तो हृदय में
आनन्द का प्रवाह होने लगता है।
या छवि पै रसखान अब वारौं कोटि मनोज
जाकी उपमा कविन नहि पाई रहे कहुं खोज।
इस दोहे में रसखान जी कहते हैं कि श्री कृष्ण
के अति सुंदर और मनोहर रुप पर करोंड़ो कामदेव न्योछावर हैं, वहीं उनकी तुलना विद्धान कवि भी नहीं खोज पा रहे हैं अर्थात श्री कृष्ण के
सौन्दर्य रूप की तुलना करना संभव नहीं है।
जोहन नंद कुमार को गई नंद के गेह
मोहि देखि मुसिकाई के बरस्यो मेह सनेह।
दोहे का अर्थ-👇
इस दोहे में महाकवि रसखान जी कहते हैं कि जब
वे श्री कृष्ण से मिलने उनके घर गए तब उन्हें देखकर श्री कृष्ण इस तरह मुस्कुराये
जैसे लगा कि उनके स्नेह प्रेम की बारिश चारों तरफ होने लगी। इसके साथ ही श्याम का
स्नेह रस हर तरफ से बरसने लगा।
प्रेम हरि को रुप है त्यौं हरि प्रेमस्वरुप
एक होई है यों लसै ज्यों सूरज औ धूप।
दोहे का अर्थ-👇
रसखान प्रेमी भक्त कवि थे। वे प्रेम को हरि का
रुप या पर्याय मानते हैं और ईश्वर को साक्षात प्रेम स्वरुप मानते हैं।
प्रेम एवं परमात्मा में कोई अन्तर नहीं होता
जैसे कि सूर्य एवं धूप एक हीं है और उनमें कोई तात्विक अन्तर नहीं होता।
काग के भाग बड़े सनती !
हरि हाथ सौ ले गयो माखन रोटी !!
अर्थ : इस
दोहे में रसखान जी कहते है कि वह कोआ बहुत भाग्यशाली है जो श्री कृष्ण के हाथो से
माखन रोटी छीन कर ले गया ! प्रभु के हाथ से माखन रोटी लेने का सौभाग्य उस कौए का
प्राप्त हुआ है
ब्रह्म मैं ढूंढ्यों पुराननि
गाननि, वेद रिचा सुनि चौगुने चायन।
देख्यों सुन्यों कबहुं न कितूं वह कैसे सरूप ओ कैसे सुभायन।।
टेरत टेरत हारि पर्यौ 'रसखान' बतायौ न लोग लुगायन।
देख्यों, दुरयौ वह कुंज कुटीर में बैठ्यौ
पलोटतु राधिका पायन।।
शेष, गणेश, महेश, दिनेश और सुरेश जिनका पार नहीं पा सके, वेद अनादि, अनन्त, अखण्ड, अभेद कहकर नेति-नेति के भ्रमसागर में डूब गये, उनके स्वरूप का इतना भव्य रसमय दर्शन जिस सुन्दर रीति से रसखान ने किया, वह इतिहास की एक अद्भुत घटना है। भक्ति-साहित्य का रहस्यमय वैचित्र्य है। वे आजीवन ब्रज में ही भगवान की लीला को काव्यरूप देते हुए विचरण करते रहे। भगवान ही उनके एकमात्र स्नेही, सखा और सम्बन्धी थे।
Raskhan ke Savaiye/ रसखान के सवैयों का
भावार्थ
मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि
कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥
या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।रौं
आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नंद की
धेनु चराय बिसारौं॥रौं
रसखान कबौं इन आँखिन सों, सों ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।रौं
कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥
मोरपखा सिर ऊपर राखिहौं, हौं गुंज की माल गरें पहिरौंगी रौं ।
ओढ़ि पितंबर लै लकुटी बन गोधन
ग्वारनि संग फिरौंगी रौं ॥
भावतो वोहि मेरो रसखानि सों तेरे
कहे सब स्वांग करौंगी रौं ।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा
न धरौंगी रौं ॥
काननि दै अँगुरी जबहीं मुरली
धुनि मन्द बजैहै।
मोहनी तानन सों अटा चढ़ि गोधन
गैहे तौ गैहै।।
टेरि कहौं सिगरे ब्रज लोगानि
काल्हि कोऊ कितनो समुझैहै।
माइ री वा मुख की मुसकानि
सम्हारी न जैहै, न जैहे, न जैहे।।
रसखान एक मुस्लिम कवि होते हुए भी एक सच्चे कृष्णभक्त थे. उनके
द्वारा रचित सवैये में कृष्ण एवं उनकी लीला-भूमि
वृन्दावन की प्रत्येक वस्तु के प्रति उनका लगाव प्रकट हुआ है। प्रथम सवैये में कवि
रसखान कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति का उदाहरण पेश करते
हैं। वह कहते हैं कि ईश्वर उन्हें चाहे मनुष्य बनाए या पशु-पक्षी या फिर पत्थर, इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। वो सिर्फ कृष्ण का साथ चाहते हैं।
इस तरह हम रसखान के सवैयों में कृष्ण के प्रति
अपार प्रेम तथा भक्ति-भाव को देख सकते हैं। अपने दूसरे सवैये में रसखान ने अपने
ब्रज-प्रेम का वर्णन किया है। वे ब्रज के ख़ातिर
संसार के सभी सुखों का त्याग कर सकते हैं।
अपने तीसरे सवैये में रसखान ने गोपियों के
कृष्ण के प्रति अतुलनीय प्रेम को दर्शाया है. उन्हें श्री कृष्ण की हर वस्तु से
प्रेम है। गोपियाँ स्वयं कृष्ण का रूप धारण कर लेना चाहती हैं, ताकि वो कभी उनसे जुदा ना हो सकें। अपने अंतिम सवैये में रसखान कृष्ण की
मुरली की मधुर ध्वनि तथा गोपियों की विवशता का वर्णन करते हैं कि किस प्रकार
गोपिया चाहकर भी कृष्ण को प्रेम किए बिना नहीं रह सकतीं।तीं Raskhan ke
Savaiye
आइये अब हम प्रत्येक सवैये की विस्तृत
व्याख्या देखते हैं:
मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि
कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥
व्याख्या1:
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि रसखान के श्री कृष्ण एवं उनके गांव
गोकुल-ब्रज के प्रति लगाव का वर्णन हुआ है। रसखान का यह मानना है कि ब्रज के कण-कण
में श्री कृष्ण बसे हुए हैं। इसी वजह से वे अपने प्रत्येक जन्म में ब्रज की धरती
पर जन्म लेना चाहते हैं। अगर उनका जन्म मनुष्य के रूप में हो, तो वो गोकुल के ग्वालों के बीच में जन्म लेना चाहते हैं। पशु के रूप में
जन्म लेने पर, वो गोकुल की गायों के साथ घूमना-फिरना चाहते
हैं। अगर वो पत्थर भी बनें, तो उसी गोवर्धन पर्वत का पत्थर
बनना चाहते हैं, जिसे श्री कृष्ण ने इन्द्र के प्रकोप से
गोकुलवासियों को बचाने के लिए अपनी उँगली पर उठाया था। अगर वो पक्षी भी बनें,
तो वो यमुना के तट पर कदम्ब के पेड़ों में रहने वाले पक्षियों के
साथ रहना चाहते हैं। इस प्रकार कवि चाहे कोई भी जन्म लें, वो
रहना ब्रज की भूमि पर ही चाहते हैं। इस सवैये से कवि रसखान का भगवन श्री कृष्ण के
प्रति अगाध प्रेम और श्रद्धा प्रदर्शित होती है.
व्याख्या 2: कवि रसखान
हर दशा में अपने आराध्य श्रीकृष्ण का सामीप्य पाने की इच्छा रखते हैं. वे कहते हैं
कि यदि मैं अगले जन्म में मनुष्य योनि में जन्म लूँ तो मेरी उत्कट इच्छा है कि मैं
ब्रज में गोकुल गाँव के ग्वालों के बीच ही अर्थात् एक ग्वाला बनकर निवास करूँ। यदि
मैं पशु बनूँ तो फिर मेरे वश में ही क्या है? अर्थात् पशु
योनि में जन्म लेने पर मेरा कोई वश नहीं है, फिर भी चाहता
हूँ कि मैं नन्द की गायों के मध्य में चरने वाला एक पशु अर्थात् उनकी गाय बनूँ।
यदि पत्थर बनूँ तो उसी गोवर्धन पर्वत का पत्थर बनूँ जिसे श्रीकृष्ण ने इन्द्र के
कोप से ब्रज की रक्षा करने के लिए छत्र की तरह हाथ में उठाया था, धारण किया था। यदि मैं पक्षी योनि में जन्म लूँ तो मेरी इच्छा है कि मैं
यमुना के तट पर स्थित कदम्ब की डालियों पर बसेरा करने वाला पक्षी बनूँ अर्थात् हर
योनि और हर जन्म में अपने आराध्य श्रीकृष्ण और ब्रजभूमि का सामीप्य चाहता हूँ और
यही मेरी प्रभु से विनती है।
या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।रौं
आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नंद की
धेनु चराय बिसारौं॥रौं
रसखान कबौं इन आँखिन सों, सों ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।रौं
कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥
व्याख्या1:
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि रसखान का भगवान श्रीकृष्ण एवं उनसे
जुड़ी वस्तुओं के प्रति बड़ा गहरा लगाव देखने को मिलता है। वे कृष्ण की लाठी और
कंबल के लिए तीनों लोकों का राज-पाठ तक छोड़ने के लिए तैयार हैं। अगर उन्हें नन्द
की गायों को चराने का मौका मिले, तो इसके लिए वो आठों
सिद्धियों एवं नौ निधियों के सुख को भी त्याग सकते हैं। जब से कवि ने ब्रज के वनों,
नों बगीचों, चों तालाबों इत्यादि को देखा है,
वे इनसे दूर नहीं रह पा रहे हैं। जब से कवि ने करील की झाड़ियों और
वन को देखा है, वो इनके ऊपर करोड़ों सोने के महल भी न्योछावर
करने के लिए तैयार हैं।
व्याख्या 2: श्रीकृष्ण
की प्रिय वस्तुओं के प्रति अपना अतिशय अनुराग दर्शाते हुए कवि रसखान कहते है कि
मैं कृष्ण की लाठी या छङी और कंबल मिल जाने पर तीनों लोकों का सुख-साम्राज्य छोङने
को तैयार हूँ। यदि नन्द की गायें चराने का सौभाग्य मिल तो मैं आठों सिद्धियों और
नौ निधियों के सुख को भी त्याग दूँ, अर्थात् नन्द की गायें चराने
का सुख मिलने पर अन्य सब सुख त्याग सकता हूँ। जब मेरे इन नेत्रों को ब्रजभूमि के
बाग, तालाब आदि देखने को मिल जाए और करी के कुंजों में विचरण
करने का सौभाग्य या अवसर मिल जाएँ ता मैं उस सुख पर सोने के करोङों महलों को
न्यौछावर कर सकता हूँ। कवि रसखान यह कहना चाहते हैं कि मुझे अपने आराध्य श्रीकृष्ण
से सम्बन्धित सभी वस्तुओं से जो सुख प्राप्त हो सकता है, वह
अन्य किसी भी वस्तु से नहीं मिल सकता।
मोरपखा सिर ऊपर राखिहौं, हौं गुंज की माल गरें पहिरौंगी रौं ।
ओढ़ि पितंबर लै लकुटी बन गोधन
ग्वारनि संग फिरौंगी रौं ॥
भावतो वोहि मेरो रसखानि सों तेरे
कहे सब स्वांग करौंगी रौं ।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा
न धरौंगी रौं ॥
व्याख्या1: प्रस्तुत
पंक्तियों में रसखान ने कृष्ण से अपार प्रेम करने वाली गोपियों के बारे में बताया है,
जो एक-दूसरे से बात करते हुए कह रही हैं कि वो कान्हा द्वारा उपयोग
की जाने वाली वस्तुओं की मदद से कान्हा का रूप धारण कर सकती हैं। मगर, वो कृष्ण की मुरली को धारण नहीं करेंगी। यहाँ गोपियाँ कह रही हैं कि वे
अपने सिर पर श्री कृष्ण की तरह मोरपंख से बना मुकुट पहन लेंगी। अपने गले में कुंज
की माला भी पहन लेंगी। उनके सामान पीले वस्त्र पहन लेंगी और अपने हाथों में लाठी
लेकर वन में ग्वालों के संग गायें चराएंगी। गोपियाँ कह रही है कि कृष्ण हमारे मन
को बहुत भाते हैं, इसलिए मैं तुम्हारे कहने पर ये सब कर
लूँगी। मगर, मुझे कृष्ण के होठों पर रखी हुई मुरली अपने
होठों से लगाने के लिए मत बोलना, क्योंकिक्यों इसी मुरली की
वजह से कृष्ण हमसे दूर हुए हैं। गोपियों को लगता है कि श्री कृष्ण मुरली से बहुत
प्रेम करते हैं और उसे हमेशा अपने होठों से लगाए रहते हैं, इसीलिए
वे मुरली को अपनी सौतन या सौत की तरह देखती हैं।
व्याख्या
2: श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम भक्ति रखने वाली कोई गोपी अपनी
सखी से कहती है कि मैं प्रियतम कृष्ण की रूप-छवि को अपने शरीर पर धारण करना चाहती
हूँ। इस कारण मैं अपने सिर पर मोर पंखों का मुकुट धारण करूँगी और गले में घुँघुची
की वनमाला पहनूँगी। मैं शरीर पर पीला वस्त्र पहनकर कृष्ण के समान ही हाथ में लाठी
लेकर अर्थात् उन्हीं के वेश में गायों व ग्वालिनों के साथ घूमती रहूँगी अर्थात्
गायें चराऊँगी। जो-जो बातें उन आनन्द के भण्डार कृष्ण को अच्छी लगती हैं, वे सब मैं करूँगी और तेरे कहने पर कृष्ण की तरह ही वेशभूषा, स्वांग, दिखावा, व्यवहार आदि
करूँगी। रसखान कवि के अनुसार उस गोपी ने कहा कि मैं मुरलीधर कृष्ण की मुरली को
अपने होठों पर कभी धारण नहीं करूँगी। आशय यह है कि मुरली प्रियतम कृष्ण को बहुत
प्रिय है, इसके अधरों पर रखने का अधिकार भी उनका ही है और वे
ही इससे मधुर तान सुना सकते हैं।
काननि दै अँगुरी जबहीं मुरली
धुनि मन्द बजैहै।
मोहनी तानन सों अटा चढ़ि गोधन
गैहे तौ गैहै।।
टेरि कहौं सिगरे ब्रज लोगानि
काल्हि कोऊ कितनो समुझैहै।
माइ री वा मुख की मुसकानि
सम्हारी न जैहै, न जैहे, न जैहे।।
व्याख्या1: रसखान ने
इन पंक्तियों में गोपियों के कृष्ण प्रेम का वर्णन किया है, वो
चाहकर भी कृष्ण को अपने दिलो-दिमाग से निकल नहीं सकती हैं। इसीलिए वे कह रही हैं
कि जब कृष्ण अपनी मुरली बजाएंगे, तो वो उससे निकलने वाली
मधुर ध्वनि को नहीं सुनेंगी। वो सभी अपने कानों पर हाथ रख लेंगी। उनका मानना है कि
भले ही, कि सी नी ली की क्यों येंऔ गी ही क्यों कृष्ण किसी
महल पर चढ़ कर, अपनी मुरली की मधुर तान क्यों न बजायें और
गीत ही क्यों न गाएं, जब तक वो उसे नहीं सुनेंगी, तब तक उन पर मधुर तानों का कोई असर नहीं होने वाला। लेकिन अगर गलती से भी
मुरली की मधुर ध्वनि उनके कानों में चली गई, तो फिर हम अपने
वश में नहीं रह पाएंगी। फिर चाहे हमें कोई कितना भी समझाए, हम
कुछ भी समझ नहीं पाएंगी। गोपियों के अनुसार, कृष्ण की
मुस्कान इतनी प्यारी लगती है कि उसे देख कर कोई भी उनके वश में आए बिना नहीं रह
सकता है। इसी कारणवश, गोपियाँ कह रही हैं कि श्री कृष्ण का
मोहक मुख देख कर, उनसे ख़ुद को बिल्कुल भी संभाला नहीं
जाएगा। वो सारी लाज-शर्म छोड़कर श्री कृष्ण की ओर खिंची चली जाएँगी। व्याख्या 2:
श्रीकृष्ण की मुरली तथा उनकी मुस्कान पर आसक्त कोई गोपी अपने सखी से
कहती है कि जब श्रीकृष्ण मन्द-मन्द मधुर स्वर में मुरली बजाएँगे तो मैं अपने कानों
में ऊँगली डाल लूँगी, ताकि मुरली की मधुर तान मुझे अपनी ओर
आकर्षित न कर सके या फिर श्रीकृष्ण ऊँटी अटारी पर चढ़कर मुरली की मधुर तान छेङते
हुए गोधन (ब्रज में गया जाने वाला लोकगीत) गाने लगें तो गाते रहें, परन्तु मुझ पर उसका कोई असर नहीं हो पायेगा। मैं ब्रज के समस्त लोगों को
पुकार-पुकार कर अथवा चिल्लाकर कहना चाहती हूँ कि कल कोई मुझे कितना ही समझा ले,
चाहे कोई कुछ भी करे या कहे, परन्तु यदि मैंने
मैं श्रीकृष्ण की आकर्षक मुस्कान देख ली तो मैं उसके वश में हो जाऊँगी। हाय री
माँ! उसके मुख की मुस्कान इतनी मादक है कि उसके प्रभाव से बच पाना या सँभल पाना अत्यन्त
कठिन हैं। मैं उससे प्राप्त सुख को नहीं सँभाल सकूँगी।
प्रश्न: ब्रजभूमि के प्रति कवि का प्रेम किन
किन रूपों में अभिव्यक्त हुआ है?
उत्तर: कवि ने ब्रजभूमि के प्रति अपने प्रेम
को कई रूपों में अभिव्यक्त किया है। कवि की इच्छा है कि वे चाहे जिस
रूप में जन्म लें, हर रूप में ब्रजभूमि में ही वाह करें। यदि मनुष्य हों तो गोकुल के ग्वालों
के रूप में बसना चाहिए।
यदि पशु हों तो नंद की गायों के साथ चरना चाहिए।
यदि पत्थर हों तो उस गोवर्धन पहाड़ पर होना चाहिए जिसे
कृष्ण ने अपनी उंगली पर उठा लिया था। यदि
पक्षी हों तो उन्हें यमुना नदी के किनार कदम्ब की डाल पर बसेरा
करना पसंद हैं।
प्रश्न: कवि का ब्रज के वन, बाग और तालाब को निहारने के पीछे क्या कारण हैं?
उत्तर: कवि का कृष्ण के प्रति जो प्रेम है वह
सभी सीमाओं से परे है। कवि को ब्रज की एक एक वस्तु में कृष्ण ही
दिखाई देते हैं। इसलिए कवि ब्रज के वन, बाग और तालाब को निहारते रहना चाहता है।
प्रश्न: एक लकुटी और कामरिया पर कवि सब कुछ
न्योछावर करने को क्यों तैयार हैं?
उत्तर: कवि हर वह काम करने को तैयार है जिससे
वह कृष्ण के सान्निध्य में रह सके। इसलिए वह एक लकुटी
और कम्बल पर अपना सब कुछ न्योछावर करने को
तैयार है। Raskhan ke Savaiye
प्रश्न: सखी ने गोपी से कृष्ण का कैसा रूप
धारण करने का आग्रह किया था? अपने शब्दों में वर्णन
कीजिए।
उत्तर: सखी ने गोपी से कृष्ण का रूप धारण करने
का आग्रह किया था। वे चाहती हैं कि गोपी मोर मुकुट
पहनकर, गले में
माला डालकर, पीले वस्त्र धारण कर और हाथ में लाठी लेकर पूरे
दिन गायों और ग्वालों के साथ
घूमने को तैयार हो जाये। इससे सखियों को हर
समय कृष्ण के रूप के दर्शन होते रहेंगे।
प्रश्न: आपके विचार से कवि पशु, पक्षी और पहाड़ के रूप में भी कृष्ण का सान्निध्य क्यों प्राप्त करना
चाहता है?
उत्तर: कवि कृष्ण से इतना प्रेम करता है कि
अपना पूरा जीवन उनके समीप बिताना चाहता है। इसलिए वह जिस
रूप में संभव हो उस रूप में ब्रजभूमि में रहना
चाहता है। इसलिए कवि पशु, पक्षी और पहाड़ के रूप में भी
कृष्ण
का सान्निध्य प्राप्त करना चाहता है।
प्रश्न: चौथे सवैये के अनुसार गोपियाँ अपने आप
को क्यों विवश पाती हैं?
उत्तर: कृष्ण की मुरली की धुन इतनी मोहक होती
है कि उसे सुनने के बाद कोई भी अपना आपा खो देता है।
गोपियाँ वह हर काम कर सकती हैं जिससे उनपर
कृष्ण के पड़ने वाले प्रभाव को छुपा सकें। लेकिन उनका सारा
प्रयास कृष्ण की मुरली की तान पर व्यर्थ हो
जाता है। उसके बाद उनके तन मन की खुशी को छुपाना असंभव हो
जाता है। इसलिए गोपियाँ अपने आप को विवश पाती
हैं।
प्रश्न: भाव स्पष्ट कीजिए:
कोटिक ए कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर
वारौं।रौं
उत्तर: कृष्ण के प्रेम के लिए वे किसी भी हद
तक जाने को तैयार हैं। यहाँ तक कि ब्रज की कांटेदार झाड़ियों के लिए भी वे सौ
महलों को भी निछावर कर देंगे।
माइ री वा मुख की मुसकानि सम्हारी न जैहै, न जैहै, न जैहै।
उत्तर: लेकिन गोपियों को ये भी डर है और
ब्रजवासी भी कह रहे हैं कि जब कृष्ण की मुरली बजेगी तो उसकी टेर सुनकर गोपियों के
मुख की मुसकान सम्हाले नहीं सम्हलेगी। उस मुसकान से पता चल जाएगा कि वे कृष्ण के
प्रेम में कितनी डूबी हुई हैं।
प्रश्न: ‘कालिंदी कूल कदंब की डारन’ में कौन
सा अलंकार है?
उत्तर: यहाँ पर ‘क’ वर्ण की आवृत्ति हुई है।
इसलिए यहाँ अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है।
प्रश्न: काव्य सौंदर्य स्पष्ट कीजिए: या मुरली
मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी रौं ।
उत्तर: इस वाक्य में अनुप्रास अलंकार का
प्रयोग हुआ है। कवि ने ब्रजभाषा का प्रयोग बड़ी दक्षता के साथ किया है। इस छोटी सी
पंक्ति से कवि ने बहुत बड़ी बात व्यक्त की है। गोपियाँ कृष्ण का रूप धरने को तैयार
हैं लेकिन उनकी मुरली को अपने होठों से लगाने को तैयार नहीं हैं। ऐसा इसलिए है कि
वह मुरली गोपियों को किसी सौतन की तरह लगती है जो सदैव कृष्ण के अधरों से लगी रहती
है।
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