पूरे भारत पर राज करने वाले मुगल शासकों के विजय रथ का पहिया बंगाल से आगे पूर्वोत्तर में नहीं पहुंच सका। मुगल ताकत और पूर्वोत्तर भारत पर फतह के बीच केवल एक शख्स अड़ गया, जिसका नाम है लाचित बोरफूकन (Lachit Borphukan)। असम के इतिहास और लोकगीतों में लाचित बोरफूकन का चरित्र मराठा वीर शिवाजी की तरह अमर है। 17वीं सदी में आहोम साम्राज्य के कमांडर लाचित ने ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर मुगलों की शक्तिशाली सेना को धूल चटा दी थी।
लाचित बरफूकन आहोम
साम्राज्य के एक
सेनापति और बरफूकन थे, जो
कि सन 1671 में हुई सराईघाट
की लड़ाई में
अपनी नेतृत्व-क्षमता के लिए जाने जाते हैं, जिसमें असम पर पुनः अधिकार प्राप्त करने के लिए रामसिंह प्रथम के
नेतृत्व वाली मुग़ल सेनाओं का प्रयास विफल कर
दिया गया था।
1665 में लचित को अहोम सेना का
मुख्य सेनाध्यक्ष यानी बरफूकन बनाया गया। अहोम सेना में दस जवानों का नायक डेका कहलाता था, 100 का सैनिया, एक हज़ार का
हज़ारिका, 3 हज़ार का राजखोवा और 6 हज़ार
जवानों का नायक फूकन कहलाता था। बरफूकन उन सभी का प्रमुख होता था।
राजा चक्रध्वज ने
गुवाहाटी के शासक मुग़लों के विरुद्ध अभियान में सेना का नेतृत्व करने के लिए
लाचित बोड़फुकन का चयन किया।[4] राजा ने उपहारस्वरूप लाचित
को सोने की मूठ वाली एक तलवार (हेंगडांग) और विशिष्टता के प्रतीक पारंपरिक वस्त्र
प्रदान किए.
गुरिल्ला युद्ध और प्रेत का डर
लचित ने उन्होंने सेना में स्थानीय लोगों को भर्ती किया। स्थानीय
संसाधनों का इस्तेमाल कर अस्त्र-शस्त्र तैयार करवाए। नावों का बेड़ा और तोपों का
निर्माण करवाया। लगातार चार साल तक वह युद्ध की तैयारी करते रहे। और बीच-बीच में
मुग़ल प्रतिनिधियों से बातचीत भी ताकि उन्हें युद्ध की तैयारी की भनक न लग पाए।
तोपों में भर
दिया पानी
1667 में मुग़ल राजा ने गुवाहाटी का शासक फिरोज ख़ान को बना दिया।
वह एक नंबर का ऐय्याश था और अहोम राजा पर असम की लड़कियां भेजने का दबाव डालता।
इससे स्थानीय शासकों में गुस्सा भड़कने लगा। लचित तो मौके की तलाश में ही थे। उनके
पास जल सेना थी, लेकिन अश्व वाहिनी का अभाव था। इसलिए क़िले
पर हमला नहीं कर पा रहे थे। और गुवाहाटी को मुक्त कराने के लिए ईटाखुली क़िले पर
कब्जा भी ज़रूरी था।
इसके लिए लचित ने पहले रणनीति तैयार की। अपने सहयोगी इस्माइल
सिद्दीकी उर्फ बाघ हज़ारिका की अगुवाई में एक सैन्य टुकड़ी भेजी। कुछ जवान रात के
अंधेरे में क़िले की दीवार पर चढ़कर अंदर चले गए और मुग़लों की तोप की नली में पानी
भर दिया।
अगली सुबह क़िले पर हमला हुआ। मुग़ल तोप बेकार हो चुके थे। इस तरह
लचित ने अपनी सूझबूझ से मुग़लों को एक बड़ा झटका दिया और गुवाहाटी पर अहोम शासन
क़ायम हुआ। इस पराजय की ख़बर मिलते ही मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब गुस्से से पागल हो
उठा। उसने अपने सेनापति राम सिंह के नेतृत्व में 70 ह़जार
सैनिकों का विशाल दल, एक हज़ार तोपों के साथ बड़ी नौकाओं में
रवाना कर दिया। यह सेना ब्रह्मपुत्र नदी के रास्ते गुवाहाटी के क़रीब पहुंची।
लचित बरफूकन ने रणनीति के तहत उन्हें गुवाहाटी के कामाख्या मंदिर के
पास तक आने दिया, क्योंकि गुरिल्ला युद्ध के लिए वह जगह
बेहतर थी। दोनों तरफ पहाड़ियां, घने जंगल और बांस के झुरमुट
थे। ब्रह्मपुत्र नदी के उस पार मुग़लों ने अपना शिविर लगाया था।
छोटी नावों से
तैयार जीत का पुल
अहोम
सेना मुग़लों की विशाल सेना से सीधे युद्ध करने की स्थिति में नहीं थी। सो, लचित ने रात के वक्त़ गुरिल्ला युद्ध करने की रणनीति बनाई। रात में जिस
आवेग से उनके योद्धा हमला करते, उसे देख मुग़ल सैनिकों में
ख़ौफ बैठ गया। वे कहते थे कि अहोम सैनिक राक्षस हैं। उनके पास प्रेत शक्ति है।
इसीलिए वे रात में हमला करते हैं।
लचित के नेतृत्व में अहोम योद्धाओं के गुरिल्ला युद्ध और पराक्रम से
उनका मनोबल टूटने लगा। घबराकर मुग़ल सेनापति राम सिंह ने लचित से रात में हमला न
करने का आग्रह किया। इस पर अहोम सेनापति ने जो जवाब दिया, लोग
उसे आजतक याद करते हैं।
लचित ने मुग़लों के सेनापति से कहा, ‘शेर
हमेशा रात में ही हमला करते हैं।’ अहोम सैनिकों की प्रेत शक्ति का जो भय रामसिंह
के सैनिकों में समाया था, लचित ने उनका भी फ़ायदा उठाया।
उन्होंने अपने सैनिकों को राक्षस की वेश-भूषा में मुग़ल सेना के शिविरों के आसपास
भेजा।
इतिहासकार डॉ. एच. के. बरपुजारी ने अपनी क़िताब ‘कॉम्प्रिहेंसिव
हिस्ट्री ऑफ असम’ में लिखा है, ‘लचित तुरंत युद्ध की रणनीति
बनाते। अक्सर रात में मुग़लों पर हमला करते, जब उनकी सेना
आराम कर रही होती।’
तब मुग़ल सेनापति राम सिंह ने एक चाल चली। उसने अहोम सेना को एक
पत्र भेजा। इसमें लिखा था, ‘लचित ने गुवाहाटी खाली करने के
लिए एक लाख रुपये लिए हैं।’ उसने लचित को पसंद न करने वाले सैन्य अधिकारियों को
घूस भेजकर अहोम सेना में फूट डालने की भी कोशिश की।
यह ख़बर जब अहोम राजा तक पहुंची, तो उन्हें भी
एक बार के लिए लचित की नीयत पर शक़ हुआ। लेकिन प्रधाममंत्री अतन बरगोहाइरं ने
उन्हें समझाया कि यह मुग़लों की चाल है। लेकिन कहते हैं न, शक़
का कीड़ा दिमाग़ को खोखला कर देता है। सराइघाट में लचित सीधे युद्ध के पक्ष में
नहीं थे, लेकिन राम सिंह ने युद्ध का आह्वान किया। इधर,
लचित पर शक़ कर बैठे अहोम राजा ने भी जल्दबाज़ी में युद्ध का आदेश
दिया।
अहोम सेना को भारी नुक़सान हुआ। क़रीब 10 हज़ार
सैनिक मारे गए। बचे हुए सैनिक मैदान छोड़ भागने लगे। बरपुजारी लिखते हैं कि जब
मुग़लों की चाल की वजह से अहोम सेना में फूट पड़ी और कुछ सैनिक मैदान से भागने लगे
तो बीमार होने के बावजूद लचित युद्ध के मैदान में उतर गए। भागते सैनिकों ने उनका
यह पराक्रम देखा तो वे अपने बरफूकन के साथ जंग के मैदान में लौट आए। लचित और उसकी
सेना ने अपनी छोटी-छोटी नावों पर बैठ कर मुग़लों की विशालकाय नावों का हमला बोल
दिया।
यहां तक कि इन नावों को जोड़कर ब्रह्मपुत्र पर पैदल पार पुल तैयार
दिया। इस बीच मुग़ल सेना के कप्तान मुन्नावर ख़ान अहोम सेना के हमले में नाव पर ही
मारे गए। अब मुग़ल सेना में भगदड़ मच गई। हार कर राम सिंह को अपनी सेना के साथ पीछे
हटना पड़ा। सराइघाट के इस ऐतिहासिक युद्ध के बाद मुग़लों ने फिर कभी असम की तरफ
नहीं देखा।
राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (National Defence Academy) के
सर्वश्रेष्ठ कैडेट को लचित बोरफूकन स्वर्ण पदक (The Lachit Borphukan Gold
Medal) प्रदान किया जाता है। इस पदक को रक्षाकर्मियों हेतु बोरफुकन
की वीरता से प्रेरणा लेने और उनके बलिदान का अनुसरण करने के लिये वर्ष 1999
में स्थापित किया गया था। 25 अप्रैल,
1672 को इनका निधन हो गया।
उनका मृत शरीर जोरहाट से
16 किमी दूर हूलुंगपारा में स्वर्गदेव उदयादित्य सिंह द्वारा
सन 1672 में निर्मित लचित स्मारक में विश्राम कर रहा है।
लाचित बोड़फुकन का कोई चित्र उपलब्ध नहीं है, लेकिन एक पुराना इतिवृत्त उनका
वर्णन इस प्रकार करता है, "उनका मुख चौड़ा है और
पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह दिखाई देता है। कोई भी उनके चेहरे की ओर आँख उठाकर
नहीं देख सकता."
लाचित जमीन से जुड़े योद्धा थे. उनका जन्म भले ही असम में
सत्तासीन अहोम राजवंश से जुड़े एक बड़े सामंत के घर हुआ था. लेकिन उन्हें अपने
सामान्य सैनिकों के साथ भोजन करने या उठने बैठने में कोई परहेज नहीं था. यही वजह
था कि लाचित के सिपाही उनकी एक आवाज पर जान देने के लिए तैयार रहते थे. उनके सेनापतित्व में आहोम सैनिकों का मनोबल बेहद ऊंचा रहता था. यही कारण
था कि वह मुगलों जैसे दुश्मनों के लिए साक्षात् काल साबित होते थे. सराईघाट में साल 1671 में हुए युद्ध ने लाचित
बोरफुकन का नाम अमर कर दिया. उनकी वजह से धर्मांध औरंगजेब का असम पर कब्जे का सपना
हमेशा के लिए टूट गया. असम सरकार ने साल
2000 में लाचित बोरपुखान अवॉर्ड देना शुरु किया. उनके जन्मदिन 24
नवंबर को ‘लाचित दिवस’ के रूप में मनाया जाता है. असम में उनकी प्रतिमाएं लगी हुई हैं. लेकिन दुखद यह है कि लाचित बोरफुकन की वीरगाथा हमारी
इतिहास की किताबों से गायब हैं. क्योंकि मुगलों को महान और अपराजेय बताने के लिए
उनकी बहादुरी को नजरअंदाज कर दिया गया|. असम के
पूर्व राज्यपाल और वरिष्ठ सैन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल एस के सिन्हा तो लचित के
पराक्रम की तुलना शिवाजी से करते हैं। ‘एमुलेट द स्पिरिट एंड स्किल ऑफ लचित
बरफूकन’ नाम की क़िताब में उन्होंने लिखा, ‘मध्यकालीन
भारत ने दो महान सैन्य नेता दिए। एक ओर महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी थे तो दूसरी
तरफ असम में लचित बरफूकन। दोनों लगभग समकालीन थे।’ सिन्हा
ने राष्ट्रीय डिफेंस एकेडमी ने लचित की प्रतिमा स्थापित कराई।
सरायघाट की लड़ाई में करारी हार के बाद मुगल पीछे हट गए और फिर कभी
भी असम पर आक्रमण के लिए नहीं लौटे। असम में ब्रह्मपुत्र नदी की कल-कल
बहती धारा में आज भी सराइघाट के महान युद्ध की गूंज सुनी जा सकती है। इस युद्ध में
अहोम सेना ने मुग़लों की विशाल सेना को करारी शिक़स्त देकर असम को आज़ाद कराया था।
इस ऐतिहासिक युद्ध के नायक थे, महान यौद्धा लचित बरफूकन।