लाचित बोरफूकन (Lachit Borphukan)

 

पूरे भारत पर राज करने वाले मुगल शासकों के विजय रथ का पहिया बंगाल से आगे पूर्वोत्तर में नहीं पहुंच सका। मुगल ताकत और पूर्वोत्तर भारत पर फतह के बीच केवल एक शख्स अड़ गया, जिसका नाम है लाचित बोरफूकन (Lachit Borphukan)। असम के इतिहास और लोकगीतों में लाचित बोरफूकन का चरित्र मराठा वीर शिवाजी की तरह अमर है। 17वीं सदी में आहोम साम्राज्य के कमांडर लाचित ने ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर मुगलों की शक्तिशाली सेना को धूल चटा दी थी।


लाचित बरफूकन   आहोम साम्राज्य के एक सेनापति और बरफूकन थे, जो कि सन 1671 में हुई सराईघाट की लड़ाई में अपनी नेतृत्व-क्षमता के लिए जाने जाते हैं, जिसमें असम पर पुनः अधिकार प्राप्त करने के लिए रामसिंह प्रथम के नेतृत्व वाली मुग़ल सेनाओं का प्रयास विफल कर दिया गया था।

1665 में लचित को अहोम सेना का मुख्य सेनाध्यक्ष यानी बरफूकन बनाया गया। अहोम सेना में दस जवानों का नायक डेका कहलाता था, 100 का सैनिया, एक हज़ार का हज़ारिका, 3 हज़ार का राजखोवा और 6 हज़ार जवानों का नायक फूकन कहलाता था। बरफूकन उन सभी का प्रमुख होता था।
राजा चक्रध्वज ने गुवाहाटी के शासक मुग़लों के विरुद्ध अभियान में सेना का नेतृत्व करने के लिए लाचित बोड़फुकन का चयन किया।[4] राजा ने उपहारस्वरूप लाचित को सोने की मूठ वाली एक तलवार (हेंगडांग) और विशिष्टता के प्रतीक पारंपरिक वस्त्र प्रदान किए.

गुरिल्ला युद्ध और प्रेत का डर
लचित ने उन्होंने सेना में स्थानीय लोगों को भर्ती किया। स्थानीय संसाधनों का इस्तेमाल कर अस्त्र-शस्त्र तैयार करवाए। नावों का बेड़ा और तोपों का निर्माण करवाया। लगातार चार साल तक वह युद्ध की तैयारी करते रहे। और बीच-बीच में मुग़ल प्रतिनिधियों से बातचीत भी ताकि उन्हें युद्ध की तैयारी की भनक न लग पाए।
तोपों में भर दिया पानी
1667 में मुग़ल राजा ने गुवाहाटी का शासक फिरोज ख़ान को बना दिया। वह एक नंबर का ऐय्याश था और अहोम राजा पर असम की लड़कियां भेजने का दबाव डालता। इससे स्थानीय शासकों में गुस्सा भड़कने लगा। लचित तो मौके की तलाश में ही थे। उनके पास जल सेना थी, लेकिन अश्व वाहिनी का अभाव था। इसलिए क़िले पर हमला नहीं कर पा रहे थे। और गुवाहाटी को मुक्त कराने के लिए ईटाखुली क़िले पर कब्जा भी ज़रूरी था।
इसके लिए लचित ने पहले रणनीति तैयार की। अपने सहयोगी इस्माइल सिद्दीकी उर्फ बाघ हज़ारिका की अगुवाई में एक सैन्य टुकड़ी भेजी। कुछ जवान रात के अंधेरे में क़िले की दीवार पर चढ़कर अंदर चले गए और मुग़लों की तोप की नली में पानी भर दिया।
अगली सुबह क़िले पर हमला हुआ। मुग़ल तोप बेकार हो चुके थे। इस तरह लचित ने अपनी सूझबूझ से मुग़लों को एक बड़ा झटका दिया और गुवाहाटी पर अहोम शासन क़ायम हुआ। इस पराजय की ख़बर मिलते ही मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब गुस्से से पागल हो उठा। उसने अपने सेनापति राम सिंह के नेतृत्व में 70 ह़जार सैनिकों का विशाल दल, एक हज़ार तोपों के साथ बड़ी नौकाओं में रवाना कर दिया। यह सेना ब्रह्मपुत्र नदी के रास्ते गुवाहाटी के क़रीब पहुंची।
लचित बरफूकन ने रणनीति के तहत उन्हें गुवाहाटी के कामाख्या मंदिर के पास तक आने दिया, क्योंकि गुरिल्ला युद्ध के लिए वह जगह बेहतर थी। दोनों तरफ पहाड़ियां, घने जंगल और बांस के झुरमुट थे। ब्रह्मपुत्र नदी के उस पार मुग़लों ने अपना शिविर लगाया था।
छोटी नावों से तैयार जीत का पुल




अहोम सेना मुग़लों की विशाल सेना से सीधे युद्ध करने की स्थिति में नहीं थी। सो, लचित ने रात के वक्त़ गुरिल्ला युद्ध करने की रणनीति बनाई। रात में जिस आवेग से उनके योद्धा हमला करते, उसे देख मुग़ल सैनिकों में ख़ौफ बैठ गया। वे कहते थे कि अहोम सैनिक राक्षस हैं। उनके पास प्रेत शक्ति है। इसीलिए वे रात में हमला करते हैं।
लचित के नेतृत्व में अहोम योद्धाओं के गुरिल्ला युद्ध और पराक्रम से उनका मनोबल टूटने लगा। घबराकर मुग़ल सेनापति राम सिंह ने लचित से रात में हमला न करने का आग्रह किया। इस पर अहोम सेनापति ने जो जवाब दिया, लोग उसे आजतक याद करते हैं।
लचित ने मुग़लों के सेनापति से कहा, ‘शेर हमेशा रात में ही हमला करते हैं।’ अहोम सैनिकों की प्रेत शक्ति का जो भय रामसिंह के सैनिकों में समाया था, लचित ने उनका भी फ़ायदा उठाया। उन्होंने अपने सैनिकों को राक्षस की वेश-भूषा में मुग़ल सेना के शिविरों के आसपास भेजा।
इतिहासकार डॉ. एच. के. बरपुजारी ने अपनी क़िताब ‘कॉम्प्रिहेंसिव हिस्ट्री ऑफ असम’ में लिखा है, ‘लचित तुरंत युद्ध की रणनीति बनाते। अक्सर रात में मुग़लों पर हमला करते, जब उनकी सेना आराम कर रही होती।’

तब मुग़ल सेनापति राम सिंह ने एक चाल चली। उसने अहोम सेना को एक पत्र भेजा। इसमें लिखा था, ‘लचित ने गुवाहाटी खाली करने के लिए एक लाख रुपये लिए हैं।’ उसने लचित को पसंद न करने वाले सैन्य अधिकारियों को घूस भेजकर अहोम सेना में फूट डालने की भी कोशिश की।
यह ख़बर जब अहोम राजा तक पहुंची, तो उन्हें भी एक बार के लिए लचित की नीयत पर शक़ हुआ। लेकिन प्रधाममंत्री अतन बरगोहाइरं ने उन्हें समझाया कि यह मुग़लों की चाल है। लेकिन कहते हैं न, शक़ का कीड़ा दिमाग़ को खोखला कर देता है। सराइघाट में लचित सीधे युद्ध के पक्ष में नहीं थे, लेकिन राम सिंह ने युद्ध का आह्वान किया। इधर, लचित पर शक़ कर बैठे अहोम राजा ने भी जल्दबाज़ी में युद्ध का आदेश दिया।
अहोम सेना को भारी नुक़सान हुआ। क़रीब 10 हज़ार सैनिक मारे गए। बचे हुए सैनिक मैदान छोड़ भागने लगे। बरपुजारी लिखते हैं कि जब मुग़लों की चाल की वजह से अहोम सेना में फूट पड़ी और कुछ सैनिक मैदान से भागने लगे तो बीमार होने के बावजूद लचित युद्ध के मैदान में उतर गए। भागते सैनिकों ने उनका यह पराक्रम देखा तो वे अपने बरफूकन के साथ जंग के मैदान में लौट आए। लचित और उसकी सेना ने अपनी छोटी-छोटी नावों पर बैठ कर मुग़लों की विशालकाय नावों का हमला बोल दिया।
यहां तक कि इन नावों को जोड़कर ब्रह्मपुत्र पर पैदल पार पुल तैयार दिया। इस बीच मुग़ल सेना के कप्तान मुन्नावर ख़ान अहोम सेना के हमले में नाव पर ही मारे गए। अब मुग़ल सेना में भगदड़ मच गई। हार कर राम सिंह को अपनी सेना के साथ पीछे हटना पड़ा। सराइघाट के इस ऐतिहासिक युद्ध के बाद मुग़लों ने फिर कभी असम की तरफ नहीं देखा।

राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (National Defence Academy) के सर्वश्रेष्ठ कैडेट को लचित बोरफूकन स्वर्ण पदक (The Lachit Borphukan Gold Medal) प्रदान किया जाता है। इस पदक को रक्षाकर्मियों हेतु बोरफुकन की वीरता से प्रेरणा लेने और उनके बलिदान का अनुसरण करने के लिये वर्ष 1999 में स्थापित किया गया था। 25 अप्रैल, 1672 को इनका निधन हो गया।

उनका मृत शरीर जोरहाट से 16 किमी दूर हूलुंगपारा में स्वर्गदेव उदयादित्य सिंह द्वारा सन 1672 में निर्मित लचित स्मारक में विश्राम कर रहा है।

लाचित बोड़फुकन का कोई चित्र उपलब्ध नहीं है, लेकिन एक पुराना इतिवृत्त उनका वर्णन इस प्रकार करता है, "उनका मुख चौड़ा है और पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह दिखाई देता है। कोई भी उनके चेहरे की ओर आँख उठाकर नहीं देख सकता."

 

लाचित जमीन से जुड़े योद्धा थे. उनका जन्म भले ही असम में सत्तासीन अहोम राजवंश से जुड़े एक बड़े सामंत के घर हुआ था. लेकिन उन्हें अपने सामान्य सैनिकों के साथ भोजन करने या उठने बैठने में कोई परहेज नहीं था. यही वजह था कि लाचित के सिपाही उनकी एक आवाज पर जान देने के लिए तैयार रहते थे. उनके सेनापतित्व में आहोम सैनिकों का मनोबल बेहद ऊंचा रहता था. यही कारण था कि वह मुगलों जैसे दुश्मनों के लिए साक्षात् काल साबित होते थे. सराईघाट में साल 1671 में हुए युद्ध ने लाचित बोरफुकन का नाम अमर कर दिया. उनकी वजह से धर्मांध औरंगजेब का असम पर कब्जे का सपना हमेशा के लिए टूट गया. असम सरकार ने साल  2000 में लाचित बोरपुखान अवॉर्ड देना शुरु किया. उनके जन्मदिन 24 नवंबर को ‘लाचित दिवस’ के रूप में मनाया जाता है.  असम में उनकी प्रतिमाएं लगी हुई हैं. लेकिन दुखद यह है कि लाचित बोरफुकन की वीरगाथा हमारी इतिहास की किताबों से गायब हैं. क्योंकि मुगलों को महान और अपराजेय बताने के लिए उनकी बहादुरी को नजरअंदाज कर दिया गया|. असम के पूर्व राज्यपाल और वरिष्ठ सैन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल एस के सिन्हा तो लचित के पराक्रम की तुलना शिवाजी से करते हैं। ‘एमुलेट द स्पिरिट एंड स्किल ऑफ लचित बरफूकन’ नाम की क़िताब में उन्होंने लिखा, ‘मध्यकालीन भारत ने दो महान सैन्य नेता दिए। एक ओर महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी थे तो दूसरी तरफ असम में लचित बरफूकन। दोनों लगभग समकालीन थे।’ सिन्हा ने राष्ट्रीय डिफेंस एकेडमी ने लचित की प्रतिमा स्थापित कराई।
सरायघाट की लड़ाई में करारी हार के बाद मुगल पीछे हट गए और फिर कभी भी असम पर आक्रमण के लिए नहीं लौटे। असम में ब्रह्मपुत्र नदी की कल-कल बहती धारा में आज भी सराइघाट के महान युद्ध की गूंज सुनी जा सकती है। इस युद्ध में अहोम सेना ने मुग़लों की विशाल सेना को करारी शिक़स्त देकर असम को आज़ाद कराया था। इस ऐतिहासिक युद्ध के नायक थे, महान यौद्धा लचित बरफूकन।





 

Bharat Mahima by Jai Shankar Prasad

महारानी अहिल्या बाई होल्कर

 

 महारानी अहिल्याबाई इतिहास-प्रसिद्ध सूबेदार मल्हारराव होलकर के पुत्र खंडेराव की पत्नी थीं। अहिल्याबाई किसी बड़े भारी राज्य की रानी नहीं थीं, बल्कि एक छोटे भू-भाग पर उनका राज्य कायम था और उनका कार्यक्षेत्र अपेक्षाकृत सीमित था, इसके बावजूद जनकल्याण के लिए उन्होंने जो कुछ किया, वह आश्चर्यचकित करने वाला है, वह चिरस्मरणीय रहेगा|


उनका जन्म महाराष्ट्र के चोंडी गांव में 1725 में हुआ था। उनके पिता मानकोजी शिंदे खुद धनगर समाज से थे, जो गांव के पाटिल की भूमिका निभाते थे। उनके पिता ने अहिल्याबाई को पढ़ाया-लिखाया। युवा अहिल्यादेवी के चरित्र और सरलता ने इन्दौर राज्य के संस्थापक महाराज मल्हार राव होल्कर को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने उनकी शादी अपने बेटे खांडे राव से करवा दी| कहते है की एक बार राजा मल्हार राव होल्कर पुणे जा रहे थे और उन्होंने चौंढी गाँव में विश्राम किया, उस समय अहिल्याबाई गरीबों की मदद कर रही थी. उनका प्रेम और दयाभाव देखकर मल्हार राव होल्कर ने अपने बेटे खण्डेराव होलकर के लिए अहिल्याबाई का हाथ मांग लिया था.

उस समय अहिल्याबाई की उम्र महज 8 वर्ष थी, वह 8 वर्ष की आयु में मराठा की रानी बन गई थी.

इस तरह अहिल्या बाई एक दुल्हन के तौर पर मराठा समुदाय के होल्कर राजघराने में पहुंची।

सन् 1745 में अहिल्याबाई के पुत्र हुआ और तीन वर्ष बाद एक कन्या। पुत्र का नाम मालेराव और कन्या का नाम मुक्ताबाई रखा। उन्होंने बड़ी कुशलता से अपने पति के गौरव को जगाया। कुछ ही दिनों में अपने महान पिता के मार्गदर्शन में खण्डेराव एक अच्छे सिपाही बन गये। मल्हारराव को भी यह देखकर संतोष होने लगा। पुत्र-वधू अहिल्याबाई को भी वह राजकाज की शिक्षा देते रहते थे। उनकी बुद्धि और चतुराई से वह बहुत प्रसन्न होते थे।



दुर्भाग्य वश अहिल्याबाई के पति खांडेराव होलकर 1754 के कुम्भेर युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए.

अहिल्या के लिए यह एक बड़ी क्षति थी. वह बुरी तरह टूट चुकी थीं और सती होना चाहती थीं, लेकिन ससुर मल्हारराव ने उन्हें समझाया. उन्होंने यह कहते हुए अहिल्या को प्रेरित किया कि तू ही मेरा बेटा है? तेरे सिवा मेरे पास अब क्या बचा है? बेटी तू चली जायेगी तो मैं क्या करूंगा? इस बूढ़े बाप के बारे में सोच और सती होने की बात मन से निकाल दे. पिता समान ससुर को आसुंओं में भीगा देखकर अहिल्या का मन पसीज गया और उन्होंने दिल पर पत्थर रखकर उनकी बात मान ली.

अब अहिल्यादेवी पर जिम्मेदारी आ गई। उन्होंने अपने ससुर के कहने पर न केवल सैन्य मामलों में बल्कि प्रशासनिक मामलों में भी रुचि दिखाई और प्रभावी तरीके से उन्हें अंजाम दिया।

 12 साल बाद उनके ससुर मल्हार राव होलकर की भी मृत्यु हो गयी. मल्हारराव के निधन के बाद उन्होंने पेशवाओं की गद्दी से आग्रह किया कि उन्हें क्षेत्र की प्रशासनिक बागडोर सौंपी जाए। मंजूरी मिलने के बाद 1766 में रानी अहिल्यादेवी मालवा की शासक बन गईं। उन्होंने तुकोजी होल्कर को सैन्य कमांडर बनाया। उन्हें उनकी राजसी सेना का पूरा सहयोग मिला। अहिल्याबाई ने कई युद्ध का नेतृत्व किया। वे एक साहसी योद्धा थी और बेहतरीन तीरंदाज। युद्ध के दौरान वह खुद अपनी सेना में शामिल होकर युद्ध करती थी. हाथी की पीठ पर चढ़कर लड़ती थी।



 

अहिल्याबाई एक कुशल प्रशासक थीं और अपनी बुद्धिमत्ता से कठिन से कठिन परिस्थिति में भी रास्ता निकाल लेती थीं। ऐसी ही एक घटना उनके शासन संभालने के समय ही घटी। हुआ यूं कि उनके रानी बनने से अनेक राजा चिढ़ गये। उन्हीं में से एक रघोवा भी था। उसने अपनी सेना लेकर मालवा पर धावा बोल दिया। अहिल्याबाई अपने सेनापति तुकोजी राव के साथ युद्धभूमि पर जा पहुंची।
लेकिन युद्ध शुरू होने से पहले अहिल्याबाई ने एक युक्ति आजमाने की सोची। उन्होंने रघोवा को एक पत्र लिखा।
'मेरे पूर्वजों के बनाए और संरक्षित किए राज्य को हड़पने का सपना राघोबा आप मत देखिए. अगर आप आक्रमण के लिए आमादा हैं तो आइए, द्वार खोलती हूं. मेरी स्त्रियों की सेना आपका वीरता से सामना करने को तैयार खड़ी हैं. अब आप सोचिए. आप को हार मिली तो संसार क्या कहेगा, राघोबा औरतों के हाथों हार गया. अगर जीत भी मिल जाए तो आपके चारण और भाट आपकी प्रशस्ति में क्या गाएंगे? राघोवा सेना लेकर आया, एक विधवा और पुत्र शोक में आकुल एक महिला को हराने ताकि अपना लालच पूरा कर सके. पेशवाई किसे मुंह दिखाएगी?' 


उस चिट्ठी को पढ़ने के बाद राघोवा डर गया। उसके लिए यह पत्र किसी तीखे तीर से अधिक तीखा था. उसे ऐसे किसी जवाब की उम्मीद नहीं थी. राघोवा ने तुको जी के हाथों जवाब भेजा|आप गलत समझ रहीं हैं रानी. मैं तो बस आपको शोक-संवेदना जताने आया हूं. तब रानी (Ahilyabai Holkar) ने कहा- ठीक है आइए, लेकिन सेना लेकर नहीं. खुली पालकी में बैठकर. मैं खुद आपका हल्दी-कुमकुम से स्वागत करूंगी. और इस तरह अहिल्याबाई ने बिना लड़े हुए वह युद्ध जीत लिया।

एक बार जब उदयपुर की सेना के सहयोग से रामपुर के सरदार ने मालवा से विद्रोह किया तब 60 साल की रानी ने कवच चढ़ाकर हाथ में तलवार ले, युद्ध में खूब कौशल दिखाया. उदयपुर की सेना के पांव उखड़ गए.

अहिल्याबाई की समझदारी का एक और निर्णय उनकी पुत्री के विवाह से भी सम्बंधित है। हुआ यूं कि एक बार उनके राज्य में एक डकैत का आतंक काफी बढ़ गया था। उससे मुक्ति पाने के लिए उन्होंने यह घोषणा कर दी, कि जो कोई डकैत का खात्मा करेगा, उससे वो अपनी बेटी मुक्ताबाई का विवाह करेंगी। यह घोषणा सुनकर यशवंतराव नामक युवक ने अत्यंत साहस का परिचय दिया और उस डकैत को मार गिराया। अहिल्याबाई यशवंत राव की इस बहादुरी से बहुत प्रसन्न हुईं और उन्होंने अपनी पुत्री मुक्ताबाई का विवाह यशवंत राव से कर दिया

 

रानी अहिल्याबाई अपनी राजधानी महेश्वर ले गईं. वहां उन्होंने 18वीं सदी का बेहतरीन और आलीशान अहिल्या महल बनवाया। पवित्र नर्मदा नदी के किनारे बनाए गए इस महल के ईर्द-गिर्द बनी राजधानी की पहचान बनी टेक्सटाइल इंडस्ट्री। उस दौरान महेश्वर साहित्य, मूर्तिकला, संगीत और कला के क्षेत्र में एक गढ़ बन चुका था। मराठी कवि मोरोपंत, शाहिर अनंतफंडी और संस्कृत विद्वान खुलासी राम उनके कालखंड के महान व्यक्तित्व थे।

कलकत्ता से बनारस तक की सड़क, बनारस में अन्नपूर्णा का मन्दिर, गया में विष्णु मन्दिर उनके बनवाये हुए हैं। इन्होंने घाट बँधवाए, कुओं और बावड़ियों का निर्माण करवाया, मार्ग बनवाए, भूखों के लिए सदाब्रत(अन्नक्षेत्र) खोले, प्यासों के लिए प्याऊ बिठलाईं, मंदिरों में विद्वानों की नियुक्ति शास्त्रों के मनन-चिंतन और प्रवचन हेतु की। रानी अहिल्याबाई ने इसके अलावा काशी, गया, सोमनाथ, अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, द्वारिका, बद्रीनारायण, रामेश्वर, जगन्नाथ पुरी इत्यादि प्रसिद्ध तीर्थस्थानों पर मंदिर बनवाए |

इसके साथ ही उन्होंने मुख्य तीर्थस्थान जैसे गुजरात के द्वारका, काशी विश्वनाथ, वाराणसी का गंगा घाट, उज्जैन, नाशिक, विष्णुपद मंदिर और बैजनाथ के आस-पास बहुत सी धर्मशालाए भी बनवायी. उन्होंने 1777 में विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण कराया। और सोमनाथ में शिवजी का मंदिर बनवाया. जो आज भी पूजा जाता है.

रानी अहिल्याबाई ने अपने साम्राज्य महेश्वर और इंदौर में भी काफी मंदिरो का निर्माण भी किया था. अपने साम्राज्य को उन्होंने समृद्ध बनाया और सरकारी पैसा बेहद बुद्धिमानी से कई किले, विश्राम गृह, कुएं और सड़कें बनवाने पर खर्च किया। अहिल्याबाई ने इंदौर को एक छोटे-से गांव से खूबसूरत शहर बनाया। मालवा में कई किले और सड़कें बनवाईं।

 अहिल्याबाई का मानना था कि धन, प्रजा व ईश्वर की दी हुई वह धरोहर स्वरूप निधि है, जिसकी मैं मालिक नहीं बल्कि उसके प्रजाहित में उपयोग की जिम्मेदार संरक्षक हूँ । उत्तराधिकारी न होने की स्थिति में अहिल्याबाई ने प्रजा को दत्तक लेने का व स्वाभिमान पूर्वक जीने का अधिकार दिया।

अहिल्याबाई के राज्य में प्रजा पूरी तरह सुखी व संतुष्ट थी क्योंकि उनका विचार था कि प्रजा का संतोष ही राज्य का मुख्य कार्य होता है। लोकमाता अहिल्या का मानना था कि प्रजा का पालन संतान की तरह करना ही राजधर्म है ।  राज्य की सत्ता पर बैठने के पूर्व ही उन्होंने अपने पति–पुत्र सहित अपने सभी परिजनों को खो दिया था इसके बाद भी प्रजा हितार्थ किये गए उनके जनकल्याण के कार्य प्रशंसनीय हैं।
हर दिन वह अपनी प्रजा से बात करती थी। उनकी समस्याएं सुनती थी
तथा न्याय-पूर्वक निर्णय देती थीं। उनके राज्य में जाति भेद को कोई मान्यता नहीं थी व सारी प्रजा समान रूप से आदर की हकदार थी।
        इसका असर यह था कि अनेक बार लोग निजामशाही व पेशवाशाही शासन छोड़कर इनके राज्य में आकर बसने की इच्छा स्वयं इनसे व्यक्त किया करते थे ।
अहिल्याबाई का सारा जीवन वैराग्य, कर्त्तव्य-पालन और परमार्थ की साधना का बन गया। सारा राज्य उन्होंने शंकर को अर्पित कर रखा था और आप उनकी सेविका बनकर शासन चलाती थी।  शिव के प्रति उनके समर्पण भाव का पता इस बात से चलता है कि अहिल्याबाई राजाज्ञाओं पर हस्ताक्षर करते समय अपना नाम नहीं लिखती थी, बल्कि पत्र के नीचे केवल श्री शंकर लिख देती थी। उनके रुपयों पर शिवलिंग और बिल्व पत्र का चित्र ओर पैसों पर नंदी का चित्र अंकित है। कहा जाता है कि तब से लेकर भारतीय स्वराज्य की प्राप्ति तक उनके बाद में जितने नरेश इंदौर के सिंहासन पर आये सबकी राजाज्ञाऐं जब तक कि श्रीशंकर की नाम से जारी नहीं होती, तब तक वह राजाज्ञा नहीं मानी जाती थी और उस पर अमल भी नहीं होता था।
उपलब्धियां :

एक महिला होने के नाते उन्होंने विधवा महिलाओं को अपने पति की संपत्ति को हासिल करने और बेटे को गोद लेने में मदद की। 

अहिल्याबाई होल्कर का चमत्कृत कर देने वाले और अलंकृत शासन 1795 में खत्म हुआ, जब उनका निधन हुआ।
उनकी महानता और सम्मान में 
भारत सरकार ने 25 अगस्त 1996 को उनकी याद में एक डाक टिकट जारी किया। इंदौर के नागरिकों ने 1996 में उनके नाम से एक पुरस्कार स्थापित किया। असाधारण कृतित्व के लिए यह पुरस्कार दिया जाता है। इसके पहले सम्मानित शख्सियत नानाजी देशमुख थे।

जीवन में परेशानियाँ कितनी भी हो, उनसे कैसे निपटना है यह हमें अहिल्या बाई के जीवन से सीखना चाहिए. अपने जीवन काल में अहिल्या बाई होल्कर ने बहुत परेशानियों का सामना किया है लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी, यही वजह है की भारत सरकार ने भी उनको सम्मानित किया, उनके नाम डाक टिकेट भी जारी हुआ और आज अहिल्या बाई के नाम से अवार्ड भी दिया जाता है.

अहिल्याबाई ने विधवा महिलाओं और समाज के लिए किए कई काम

महारानी अहिल्याबाई की पहचान एक विनम्र एवं उदार शासक के रुप में थी।

उन्होंने समाज में विधवा महिलाओं की स्थिति पर भी खासा काम किया और उनके लिए उस वक्त बनाए गए कानून में बदलाव भी किया था।

दरअसल, अहिल्याबाई के मराठा प्रांत का शासन संभालने से पहले यह कानून था कि, अगर कोई महिला विधवा हो जाए और उसका पुत्र न हो, तो उसकी पूरी संपत्ति सरकारी खजाना या फिर राजकोष में जमा कर दी जाती थी, लेकिन अहिल्याबाई ने इस कानून को बदलकर विधवा महिला को अपनी पति की संपत्ति लेने का हकदार बनाया।

अहिल्याबाई के गद्दी पर बैठने के पहले शासन का ऐसा नियम था कि यदि किसी महिला का पति मर जाए और उसका पुत्र न हो तो उसकी संपूर्ण संपत्ति राजकोष में जमा कर दी जाती थी, परंतु अहिल्या बाई ने इस क़ानून को बदल दिया और मृतक की विधवा को यह अधिकार दिया कि वह पति द्वारा छोड़ी हुई संपत्ति की वारिस रहेगी और अपनी इच्छानुसार अपने उपयोग में लाए और चाहे तो उसका सुख भोगे या अपनी संपत्ति से जनकल्याण के काम करे। 

इसके अलावा उन्होंने महिला शिक्षा पर भी खासा जोर दिया। अपने जीवन में तमाम परेशानियां झेलने के बाद जिस तरह महारानी अहिल्याबाई ने अपनी अदम्य नारी शक्ति का इस्तेमाल किया था, वो काफी प्रशंसनीय है।

वे नारी शक्ति, धर्म, साहस, वीरता, न्याय, प्रशासन, राजतंत्र की मिसाल हैं। उन्होंने होल्कर साम्राज्य की प्रजा का एक पुत्र की भांति लालन-पालन किया तथा उन्हें सदैव अपना असीम स्नेह बांटती रही।

लोकमाता अहिल्या की प्रतिष्ठा का प्रमुख कारण यह नहीं है कि उन्होंने देशभर के तीर्थों, चारों धामों, बारह ज्योतिर्लिंगों व अनेक मंदिरों में पुनरुद्धार के कार्य कराए, अन्न क्षेत्र आरंभ किए, धर्मशालाएं बनवाईं, नदियों पर बांध बंधवाए, वृक्षारोपण कराया, सड़कें व बावड़ियां बनवाईं और मस्जिदों तथा पीर दरगाहों को भी मदद की बल्कि लोक उन्हें इसलिए पूजता है क्योंकि उन्होंने स्वयं को एक ऐसे उदाहरण के रूप में स्थापित किया जिसका सब कुछ था लेकिन स्वयं के लिए कुछ भी नहीं था। जो कुछ भी था वह लोक के लिए था। उन्होंने अपनी निजता को समग्रता के लिए न्यौछावर कर दिया था। उनके निजस्व की धारा समग्रता के सागर में विलीन हो गई थी और इसी कारण वे सरिता नहीं रहीं समुद्र हो गईं। संसार में सरिताएं तो बहुतेरी हैं लेकिन समुद्र गिने चुने।

लोकमाता अहिल्या द्वारा सरयू, नर्मदा, गंगा और गोदावरी के तटों पर घाटों का निर्माण, अयोध्या से नेमावर तक के मंदिरों में पूजा व्यवस्था तथा सात बड़े नगरों में अन्न क्षेत्रों की स्थापना करना आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा भारत के चारों शीर्षों पर पवित्र धामों की स्थापना कर समूचे भारत को एक सूत्रता में आबद्ध करने की याद दिलाता है|

देवी अहिल्या का दूसरा पक्ष उनके सुशासन और दूरदर्शिता का है। कुछ इतिहासकारों का मत है कि उनके धार्मिक कृत्यों के कारण सुशासन पर विपरीत प्रभाव पड़ा लेकिन स्वयं अभिलेख ही इसका खंडन करते हैं। देवी अहिल्या के पास खासगी व सरंजामी नामक दो कोष थे। इसमें खासगी उनका निजी कोष था जो उन्हें उनके ससुर से विरासत में मिला था। इस कोष में सोलह करोड़ रुपए उस समय उन्हें मिले थे साथ ही नियमित आय भी इस ट्रस्ट के अंतर्गत आने वाले गांवों से प्राप्त होती थी जबकि सरंजामी कोष से प्रशासन व सेना का खर्च चलता था। उन्होंने अपने निजी कोष के समस्त धन को भी सार्वजनिक हित में ही लगा दिया।

डाकुओं और भीलों को उन्होंने समाज की मुख्य धारा में लाने का यत्न किया तथा समाज के उपेक्षित लोगों की सेवा को उन्होंने ईश्वर की सेवा माना। उनकी व्यावसायिक दूरदृष्टि का उदाहरण महेश्वर का वह वस्त्रोद्योग है जहां आज भी सैकड़ों बुनकरों को आजीविका मिलती है तथा यहां की साड़ियां विश्वप्रसिद्ध हैं। वे अद्भुत दृष्टि सम्पन्न विदुषी थीं।



उन्होंने परदा नहीं किया तथा स्त्रियों के अधिकार के लिए कानून में बदलाव किए जिसके कारण विधवाओं को पति की सम्पत्ति पर तथा पुत्र को गोद लेने का अधिकार मिला। अहिल्या देवी ने डाक व्यवस्था आरंभ की तथा सन् 1783 में पदमसी नेनसी नामक कम्पनी को महेश्वर से पूना तक डाक ले जाने का कार्य सौंपा।

उन्होंने अंग्रेज़ों की कुटिल चालों की तुलना रीछ की चालों से की जो अपने शत्रु पर सीधा वार नहीं करता अपितु उसे आलिंगन में लेकर मार डालता है। इसलिए वे कहतीं थीं कि उसके सिर पर प्रहार करना चाहिए। अंग्रेज़ों के विरुद्ध उन्होंने सभी की एकता का आव्हान किया ।

प्रकृति के संरक्षण में योगदान: आज हम जिस सीड बाल की बात करते हैं इसका प्रयोग हमें अहिल्याबाई होलकर द्वारा देखने को मिलता है| वो प्रतिदिन 11 हजार पार्थिव शिवलिंग का पूजन करती थीं। मिट्टी से शिवलिंग बनाते वक्त वे हरेक शिवलिंग में अनाज के दाने या यूं कहें बीज रख देती थीं।

पूजा के बाद शिवलिंगों को नर्मदा नदी में विसर्जित कर दिया जाता था।ताकि  उनमें अंकुर होकर हरियाली बढ़ सके।

हर खेत की मेढ़ पर होते थे 20- 20 पेड़ : अहिल्याबाई ने किसानों को आदेश दिया कि खेत की मेढ़ पर 20-20 छायादार और फलदार पौधे लगाए जाएं। इनमें नीबू, गुलर, बरगद, पीपल, आम, इमली को प्राथमिकता दी। इससे मृदा का क्षरण भी नहीं होता था और कृषकों को पेड़ों के फलों को बेचकर प्राप्त होने वाली राशि मिलती थी।

माता अहिल्या की भूरि-भूरि प्रशंसा देश और विदेश के विद्वानों, इतिहासकारों तथा राजनीतिज्ञों ने की है।

ऐनी बेसंट लिखती हैं, “उनके राज में सड़कें दोनों तरफ से वृक्षों से घिरी रहती थीं। राहगीरों के लिए कुएं और विश्रामघर बनवाये गए। गरीब, बेघर लोगों की जरूरतें हमेशा पूरी की गयीं। आदिवासी कबीलों को उन्होंने जंगलों का जीवन छोड़ गांवों में किसानों के रूप में बस जाने के लिए मनाया। हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मों के लोग समान भाव से उस महान रानी के श्रद्धेय थे और उनकी लम्बी उम्र की कामना करते थे।”

 

 महिला सशक्तीकरण का कार्य 

·       अहिल्याबाई ने स्त्रियों का हमेशा ही सम्मान कियाउनको  उचित स्थान दिया। अहिल्या बाई की ख़ास विशेष सेवक एक महिला ही थी। 

·        नारीशक्ति का भरपूर उपयोग किया। उन्होंने यह बता दिया कि स्त्री किसी भी स्थिति में पुरुष से कम नहीं है। वे स्वयं भी पति के साथ रणक्षेत्र में जाया करती थीं। पति के मृत्यु  के बाद भी वे युध्द क्षेत्र में जाती  थीं और सेनाओं का नेतृत्व करती रहती थीं।



·       अपने शासनकाल में उन्होंने नदियों पर जो घाट स्नान आदि के लिए बनवाए थे, उनमें महिलाओं के लिए अलग व्यवस्था भी हुआ करती थी। स्त्रियों के मान-सम्मान का बड़ा ध्यान रखा जाता था।

·        लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने का जो घरों में थोड़ा-सा चलन था, उसे विस्तार दिया गया। दान-दक्षिणा देने में महिलाओं का वे विशेष ध्यान रखती थीं।



सिद्धार्थ और देवव्रत Play on life of Gautam Buddha

 

कथा वाचक: हला दृश्य: सिद्धार्थ अपने बगीचे में टहल रहे हैं| उनका कुत्ता राजुल उनके आगे पीछे दौड़ रहा है और कभी-कभी भोंकने लगता है। सिद्धार्थ उसे कहते हैं अभी चलेंगे, अभी महल वापस चलेंगे। एक -दो चक्कर और लगा ले। लेकिन राजुल चुप नहीं होता। फिर से भौंकने लगता है। भों -भौं थोड़ी ही दूर पर देवव्रत अपने साथियों के साथ बात कर रहा है |

देवव्रत का साथी उनसे  कुछ कह रहा है –

देवव्रत का साथी : - वाह भाई ! कितना तगड़ा हंस मारा है आपने राजकुमार| आप का भी जवाब नहीं! भाई बहुत खूब; बहुत दिनों के बाद हंस का स्वादिष्ट मांस खाने को मिलेगा|

अरे! लगता है यह हंस तो, कुमार सिद्धार्थ के उद्यान में ही गिरेगा| चलो सब वहीं चले|

कथा-वाचक –  उद्यान में हंस लहूलुहान दशा में सिद्धार्थ के निकट जा गिरता है और चित्कार करता है| सिद्धार्थ:  (चित्कार सुनकर आवाज की दिशा में दौड़ते हुए-) यह कैसी चीख है| नीचे झुक हंस को सहलाते हुए कहते हैं- कितना क्रूर हो गया है मनुष्य| क्या तुम पर तीर चलाने के पहले उसके मन में जरा भी दया नहीं आई होगी? यह क्रूर काम करने से पहले उसे तुम्हारे कष्ट का जरा भी ख्याल ना आया होगा?

अगर राजा शुद्धोधन, शिकार जैसे क्रूर कृत्य पर प्रतिबंध लगा देते तो शायद आज तुम्हारी ऐसी दशा ना होती|”



सिद्धार्थ हाथ जोड़कर- भगवान इस निर्दोष के प्राण बचा लो| यह जो गगनचुंबी उड़ाने भरा करता था, आज असहाय जमीन पर ड़ा है|

वे उसका तीर निकालते हैं और घाव के स्थान पर मिट्टी लगाते हैं| चोंच में पानी डालते हैं| हन्स हिलने-दुल्ने लगता है|-

सिद्धार्थ:- प्रभु तेरा लाख-लाख शुक्र है| यह हिल रहा है|अब शायद यह बच जाएगा|”

 राजकुमार देवव्रत अपने साथियों समेत तभी बगीचे में आते हैं|

 देवव्रत- अच्छा तो यह तुम्हारे पास है| इसे मुझे दे दो|

सिद्धार्थ- क्यों देवव्रत, तुम इसका क्या करोगे? अच्छा शायद तुम भी से सहलाना चाहते हो! लेकिन अरे भाई यह घायल है| जब यह पूर्णता: स्वस्थ हो जाए, इसे मेरे पास ही रहने दो, फिर तुम से जी भर के प्यार कर लेना|

 देवव्रत- सिद्धार्थ मैंने कहा ना य हंस मुझे दो|

सिद्धार्थ- नहीं देवव्रत, रुको| यह भी डरा हुआ और घायल है| लेकिन यह तो बताओ तुम सका करोगे क्या| अगर तुम पालना चाहते हो तो पहले से ठीक तो हो जाने दो |

देवव्रत- अरे मैंने कहा ना हंस मुझे दो। वैसे तुम्हें यह पूछने का कोई हक तो नहीं है कि मैं इसका क्या करूंगा, लेकिन फिर भी बताये देता हूं; यह मेरा शिकार है। इसके शरीर में लगा हुआ तीर मैंने मारा है।मैंने। लाओ दो इसे मुझे।“

सिद्धार्थ:- अच्छा तो वे तुम ही थे, जिसने इतनी निर्दयता से इस मासूम को तीर मारा था। देवव्रत! कितने क्रूर और निर्मम हो तुम?

देवव्रत:- देखो! बातों में समय नष्ट ना करो। मेरे दोस्त इसका ताजा मांस खाने के लिए इंतजार कर रहे । लाओ दो इसे।

सिद्धार्थ :- अरे निर्दई क्या ऐसा कहते हुए तुम्हें तनिक भी शर्म नहीं आ रही। तुम भूल गए हो कि इसमें भी जान है। इसे भी तुम्हारी ही तरह कष्ट और पीड़ा होती है। दर्द होता है। तुम्हें तो अपना भाई कहते हुए मुझे शर्म आ रही है। अगर खाना ही चाहते हो तो पृथ्वी पर अनेकानेक तरीके के साग सब्जियां हैं।आम, अंगूर, केला, संतरा, अमरूद और भी न जाने कितने तरह के फल हैं और रोज ही तो महाराज कई तरह की मिठाइयां भी बनवाते हैं। फिर क्या जरूरी है कि स्वाद के लिए, सिर्फ जीभ को संतुष्ट करने के लिए किसी मासूम असहाय प्राणी की जान ली जाए। खून की नदियां बहाई जाए।

देवव्रत: बस बस रहने दो। मुझे तुम्हारा उपदेश नहीं सुनना। अरे तुम्हें तो ठीक से धनुष बाण पकड़ना भी नहीं आता। तुम से यह तो हुआ नहीं कि मेरे अचूक निशाने की तारीफ करो। अरे मालूम भी है, आकाश में उड़ती हुई चिड़िया को मार गिराना, उड़ते हुए पक्षी को तीर मारना और उसे नीचे गिरा देना; यह कोई बच्चों का खेल नहीं है। इसके लिए बहुत प्रैक्टिस की जरूरत होती है। मेरी तारीफ करने की बजाय उल्टा मुझे बेकार का भाषण सुना रहे हो। देखो, मेरा टाइम मत वेस्ट करो और यह हंस मुझे दे दो।

कथा वाचक : हंस मेरा है यह कह कर के दोनों बहस करते हैं।

सिद्धार्थ- अरे इससे अच्छा तो यह होगा कि हम फैसले के लिए महाराज के पास चलें।

कथा वाचक:  दरबार में महाराज शुद्धोधन  विराजमान हैं। दोनों  उनके पास जाते हैं और कहते हैं- महाराज हमारा फैसला करिए

महाराज शुद्धोधन- क्या बात है मेरे बच्चों, ऐसी क्या समस्या आ गई? तुम दोनों बहुत परेशान दिख रहे हो। क्या फिर से दोनों भाइयों में झगड़ा हो गया ?

देवव्रत- महाराज बात ही कुछ ऐसी है। देखिए ना सिद्धार्थ अकारण ही विवाद कर रहा है। यह जो हंस देख रहे हैं ना, इसको मैंने अपने अचूक निशाने से मार गिराया और शिकार के नियमानुसार इस पर मेरा अधिकार है पर सिद्धार्थ है कि इसे मुझे दे ही नहीं रहा ?

शुद्धोधन- क्यों सिद्धार्थ क्या देवव्रत ठीक कह रहा है ?

सिद्धार्थ  हां पिताजी, यह हंस मेरे सामने ही तड़पता हुआ नीचे गिर पड़ा। फिर मैंने इसके घावों को सहलाया, उन पर मिट्टी लगाई, इसे पानी पिलाया और अब इसकी स्थिति में धीरे-धीरे सुधार है। अब मैं इसे किसी को नहीं दूंगा और देवव्रत को तो कभी नहीं। जानते हैं देवव्रत इसे पका कर खा लेना चाहता है। मैं इसे बिल्कुल नहीं दूंगा। अब आप ही फैसला कीजिए।



महाराज: मैंने दोनों पक्षों को सुना है और मेरा फैसला यह है कि देवव्रत और सिद्धार्थ दोनों ही हंस पर अपना अधिकार जता जरूर रहे हैं, लेकिन देवव्रत ने हंस को तीर मारा और गिराया और सिद्धार्थ ने इसकी जान बचाकर मानवता की सेवा की है। निश्चय ही मानवता की भावना ही सबसे बढ़कर है।  किसी की जान लेने से बढ़कर है, किसी को जीवनदान देना। वही सच्ची पूजा है। मेरे अनुसार मारने वाले से, बचाने वाला श्रेष्ठ है isliye यह हंस सिद्धार्थ का ही है। एक और बात भी है! अभी जब तुमने ने हंस को नीचे रख दिया था तो मैंने देखा कि यह अपने आप सिद्धार्थ के पास चला गया| इससे भी यह बात साबित हो जाती है कि मारने वाले  से बचाने वाला श्रेष्ठ है।

पीछे से आवाज में आती हैं (सारे actors बोलेन्गे) महाराज की जय हो| कुमार सिद्धार्थ ही जय हो| गौतम बुद्ध की जय हो।धर्म की जयहो|

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