कथा वाचक: पहला
दृश्य: सिद्धार्थ
अपने बगीचे में टहल रहे हैं|
उनका कुत्ता राजुल उनके आगे पीछे दौड़ रहा है और कभी-कभी भोंकने लगता है।
सिद्धार्थ उसे कहते हैं अभी चलेंगे, अभी महल वापस चलेंगे। एक -दो चक्कर और लगा
ले। लेकिन राजुल चुप नहीं होता। फिर से भौंकने लगता है। भों -भौं। थोड़ी ही दूर पर देवव्रत अपने साथियों के साथ बात कर रहा है |
देवव्रत का साथी उनसे कुछ कह रहा है –
देवव्रत का साथी : - वाह भाई ! कितना तगड़ा हंस मारा है आपने राजकुमार| आप का भी जवाब नहीं! भाई बहुत खूब; बहुत दिनों के बाद हंस का स्वादिष्ट
मांस खाने को मिलेगा|
अरे! लगता है यह हंस तो, कुमार सिद्धार्थ के उद्यान में ही
गिरेगा|
चलो सब वहीं
चले|
कथा-वाचक – उद्यान में हंस लहूलुहान दशा
में सिद्धार्थ के निकट जा गिरता है और चित्कार करता है| सिद्धार्थ: (चित्कार सुनकर आवाज की दिशा में दौड़ते हुए-) “यह कैसी चीख
है| नीचे झुक हंस को सहलाते हुए कहते हैं- “कितना क्रूर हो गया है मनुष्य| क्या तुम पर तीर चलाने के पहले उसके मन
में जरा भी दया नहीं आई होगी?
यह क्रूर काम करने से पहले उसे तुम्हारे कष्ट का जरा भी ख्याल ना आया होगा?
अगर राजा शुद्धोधन, शिकार जैसे क्रूर कृत्य पर प्रतिबंध लगा
देते तो
शायद आज तुम्हारी ऐसी दशा ना होती|”
सिद्धार्थ हाथ जोड़कर-
“भगवान इस निर्दोष के प्राण बचा लो| यह जो गगनचुंबी उड़ाने भरा करता था, आज असहाय जमीन
पर पड़ा
है|”
वे उसका तीर निकालते हैं और घाव के स्थान पर मिट्टी लगाते हैं| चोंच में पानी डालते हैं| हन्स हिलने-दुल्ने लगता है|-
सिद्धार्थ:- “प्रभु तेरा लाख-लाख शुक्र है| यह हिल रहा है|अब शायद यह बच जाएगा|”
राजकुमार देवव्रत अपने साथियों समेत तभी
बगीचे में आते हैं|
देवव्रत- “अच्छा तो यह तुम्हारे
पास
है|
इसे मुझे दे दो|
सिद्धार्थ- क्यों देवव्रत, तुम इसका क्या करोगे? अच्छा शायद तुम भी इसे सहलाना चाहते हो! लेकिन अरे भाई यह घायल है| जब यह पूर्णता: स्वस्थ न हो जाए, इसे मेरे पास ही रहने दो, फिर तुम इसे
जी भर के प्यार कर
लेना|
देवव्रत-
सिद्धार्थ मैंने कहा ना यह हंस मुझे दो|
सिद्धार्थ-
नहीं देवव्रत,
रुको| यह
अभी डरा हुआ और घायल है| लेकिन यह तो बताओ तुम इसका करोगे क्या| अगर तुम पालना चाहते हो तो पहले इसे ठीक तो हो जाने दो |
देवव्रत- अरे मैंने कहा ना
हंस मुझे दो। वैसे तुम्हें यह पूछने का कोई हक तो नहीं है कि मैं इसका क्या करूंगा,
लेकिन फिर भी बताये देता हूं; यह मेरा शिकार है। इसके शरीर में लगा हुआ तीर मैंने
मारा है।मैंने। लाओ दो
इसे मुझे।“
सिद्धार्थ:- अच्छा तो वे तुम ही थे,
जिसने इतनी निर्दयता से इस मासूम को तीर मारा था। देवव्रत!
कितने क्रूर और निर्मम हो तुम?
देवव्रत:- देखो!
बातों में समय नष्ट ना करो। मेरे दोस्त इसका ताजा मांस खाने के लिए इंतजार कर रहे ।
लाओ दो इसे।
सिद्धार्थ
:- अरे निर्दई क्या ऐसा कहते
हुए तुम्हें तनिक भी शर्म नहीं आ रही। तुम भूल गए हो कि इसमें भी जान है। इसे भी
तुम्हारी ही तरह कष्ट और पीड़ा होती है। दर्द होता है। तुम्हें तो अपना भाई कहते
हुए मुझे शर्म आ रही है। अगर खाना ही चाहते हो तो पृथ्वी पर अनेकानेक तरीके के साग
सब्जियां हैं।आम, अंगूर, केला, संतरा, अमरूद और भी न जाने कितने तरह के फल हैं और
रोज ही तो महाराज कई तरह की मिठाइयां भी बनवाते हैं। फिर क्या जरूरी है कि स्वाद
के लिए, सिर्फ जीभ को संतुष्ट करने के लिए किसी मासूम असहाय प्राणी की जान ली जाए।
खून की नदियां बहाई जाए।
देवव्रत: बस
बस रहने दो। मुझे तुम्हारा उपदेश नहीं सुनना। अरे तुम्हें तो ठीक से धनुष बाण
पकड़ना भी नहीं आता। तुम से यह तो हुआ नहीं कि मेरे अचूक निशाने की तारीफ करो। अरे
मालूम भी है, आकाश में उड़ती हुई चिड़िया को मार गिराना,
उड़ते हुए पक्षी को तीर मारना और उसे नीचे गिरा देना; यह कोई बच्चों का खेल नहीं है।
इसके लिए बहुत प्रैक्टिस की जरूरत होती है। मेरी तारीफ करने की बजाय उल्टा मुझे
बेकार का भाषण सुना रहे हो। देखो,
मेरा टाइम मत वेस्ट करो और यह हंस मुझे दे दो।
कथा वाचक : हंस मेरा है यह कह कर के दोनों बहस करते हैं।
सिद्धार्थ- अरे इससे अच्छा तो
यह होगा कि हम फैसले के लिए महाराज के पास चलें।
कथा वाचक: दरबार
में महाराज शुद्धोधन विराजमान हैं। दोनों उनके पास जाते हैं और कहते हैं-
महाराज हमारा फैसला करिए
।
महाराज
शुद्धोधन-
क्या बात है मेरे बच्चों,
ऐसी क्या समस्या आ गई? तुम दोनों बहुत परेशान दिख रहे हो। क्या फिर से दोनों
भाइयों में झगड़ा हो गया ?
देवव्रत- महाराज बात ही कुछ
ऐसी है। देखिए ना सिद्धार्थ अकारण ही विवाद कर रहा है। यह जो हंस देख रहे हैं ना,
इसको मैंने अपने अचूक निशाने से मार गिराया और शिकार के नियमानुसार इस पर मेरा
अधिकार है पर सिद्धार्थ है कि इसे मुझे दे ही नहीं रहा ?
शुद्धोधन-
क्यों सिद्धार्थ क्या देवव्रत ठीक कह रहा है ?
सिद्धार्थ
हां पिताजी, यह हंस मेरे सामने ही तड़पता
हुआ नीचे गिर पड़ा। फिर मैंने इसके घावों को सहलाया, उन पर मिट्टी लगाई, इसे पानी
पिलाया और अब इसकी स्थिति में धीरे-धीरे सुधार है। अब मैं इसे किसी को नहीं दूंगा
और देवव्रत को तो कभी नहीं। जानते हैं देवव्रत इसे पका कर खा लेना चाहता है।
मैं इसे बिल्कुल नहीं दूंगा। अब आप ही फैसला कीजिए।
महाराज:
मैंने दोनों पक्षों को सुना है और मेरा फैसला यह है कि देवव्रत और सिद्धार्थ दोनों
ही हंस पर अपना अधिकार जता जरूर रहे हैं, लेकिन देवव्रत ने हंस को तीर मारा और
गिराया और सिद्धार्थ ने इसकी जान बचाकर मानवता की सेवा की है। निश्चय ही मानवता की
भावना ही सबसे बढ़कर है। किसी की जान लेने
से बढ़कर है, किसी को जीवनदान देना। वही
सच्ची पूजा है। मेरे अनुसार मारने वाले से,
बचाने वाला श्रेष्ठ है isliye यह
हंस सिद्धार्थ का ही है। एक और
बात भी है!
अभी जब तुमने ने
हंस को नीचे रख दिया था तो मैंने देखा कि यह अपने आप सिद्धार्थ के पास चला गया| इससे भी यह बात साबित हो जाती है कि मारने
वाले से बचाने वाला श्रेष्ठ है।
पीछे
से आवाज में आती हैं (सारे actors बोलेन्गे) महाराज की जय हो| कुमार सिद्धार्थ ही जय हो| गौतम बुद्ध की जय हो।धर्म की जयहो|
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