चक्रवर्ती राजा दिलीप
को एक बार उनके कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ ने आदेश दिया कि
कुछ समय हमारे आश्रम में रहो और मेरी कामधेनु नन्दिनी की
सेवा करो।महाराज ने गुरु की आज्ञा मान ली। महारानी
सुदक्षिणा प्रात: काल नन्दिनी की पूजा करती । आरती
उतारकर नन्दिनी को पति के संरक्षण-में वन
में चरने के लिये भेजती। सम्राट दिनभर छाया की भाँति
नन्दिनी के साथ-साथ रहते और बराबर उसका ध्यान रखते|
लेकिन एक
दिन वन में महाराज दिलीप की निगाह क्षणभर जङ्गल
की प्राकृतिक सुंदरता में अटक गयी और तभी उन्हें
नन्दिनी की चीत्कार सुनायी दी।
उसे
एक भयानक सिंह ने अपने पंजों में जकड़ रखा था।
उन्होंने शेरह को मारने के लिये अपने तरकश से तीर निकालना
चाहा, किंतु उनका हाथ जैसे वहीं अटक
गया, वे किसी मूर्ति की तरह खडे के खड़े रह गये
और भीतर ही भीतर छटपटाने लगे..
तभी मनुष्य की वाणी
में शेर बोल उठा: राजन्! तुम्हारा
तीर
चलाने की कोशिश
करना बेकार है |मै कोई मामूली शेर नहीं हूँ|
आगे क्या हुआ जानने के लिये देखिये ये विडीओ-
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