उशीनर पुत्र महाराजा शिवि बड़े
ही दयालु और शरणागतवत्सल थे। एक बार राजा एक महान यज्ञ कर रहे थे। इतने में एक
कबूतर आया और राजा की गोद में छिप गया| पीछे से एक विशाल बाज वहाँ आया है और राजा से कह ने लगा–राजन् मैने तो सुना था,
आप बड़े ही धर्मनिष्ठ राजा हैं|
फिर आज धर्म विरुद्ध आचरण क्य़ो कर रहे हैं। यह कबूतर मेरा भोजन है और आप मुझसे मेरा भोजन छीन रहे हैं।
तभी कबूतर बोल पड़ा –
महाराज
यह बाज मुझे खाना चाहता है| मैं किसी तरह बच कर आप के पास पहुँचा हूँ| मेरे प्राण संकट में हैं| इस बाज से मेरी रक्षा कीजिए महाराज।
राजा
धर्म संकट में पड़ गये।
लेकिन फिर कुछ देर सोचने के बाद उन्होने बाज से
कहा-
राजा
– अरे बाज तुमसे डर
कर ही तो यह कबूतर अपनी जान बचाने के लिए मेरी शरण में आया है।
इसलिए शरण में आये हुए इस कबूतर को मैं
नहीं त्याग सकता। शरणागत की रक्षा नहीं करते तो परम कर्तव्य है| मैं इस बिचारे डरे हुए प्राणी को तुम्हें तो नहीं दे सकता|
बाज
– राजन आप तो जानते ही हैं कि हम बाज तो शिकार करके ही खाते हैं और हम शिकार भी
तभी करते हैं जब हमें भूख लगी होती है और पेट भरने का अधिकार तो हर किसी को है| महाराज मैंने बहुत देर तक इस बात का पीछा
किया है और इस समय राजन् मैं भूख से व्याकुल हूँ। यदि मुझे इस समय य़ह कबूतर नहीं
मिला तो मेरे प्राण चले जायेंगे। मेरे प्राण जाने पर मेरे बाल-बच्चो के भी प्राण
चले जाय़ेंगे। हे राजन्! इस तरह एक जीव के प्राण बचाने की जगह कई जीवों के प्राण चले जाय़ेंगे।
राजा
शिबि ने उत्तर देते हुए कहा- बाज
तुम्हारा कहना भी ठीक है लेकिन मैं भी अपने कर्तव्य से बंधा हुआ हूं वैसे भी राजा
होने के कारण मेरा तो कर्तव्य ही है कि मैं कमजोरों की रक्षा करूँ और फिर यह तो मेरी शरण में आया
है और शरणागत की रक्षा सबसे बड़ा धर्म है|
इसलिए यह तो निश्चित है की “मैं यह भयभीत कबूतर तुम्हें नहीं
दे सकता, |हे बाज ! किसी और
तरह तुम्हारी भूख शान्त हो सकती हो तो बताओ। मैं अपना पूरा राज्य़ तुम्हें दे सकता
हूँ, पूरे राज्य़ का आहार तुम्हें दे सकता हूँ| अपना सब कुछ तुम्हें दे सकता हूँ
पर य़ह कबूतर तुम्हें नही दे सकता। ऐसा नहीं है कि मुझे
तुम्हारा ध्यान नहीं है|मुझे
भी यह पता है कि तुम भूखे हो|
मैं तुम्हारी हर संभव मदद भी
करना चाहता हूं| इस कबूतर तुम्हें देने की बजाय कोई भी और तरीका बताओ जिससे
तुम्हारी भूख मिट सके, तुम्हारा पेट भर सके| मैं अवश्य ही तुम्हारी मदद करूंगा|
राजा
– तुमने बड़ी कृपा की। तुम जितना चाहो,
उतना मांस मैं देने को तैयार हूँ। यदि यह शरीर किसी निरीह की जान बचाने के काम न
आये तो प्रतिदिन इसका पालन पोषण करना बेकार है। जैसा तुमने कहा है, वैसा ही करता
हूँ।
यह
कहकर राजा ने एक तराजू मंगवाया और उसके एक पलडे में उस कबूतर को बैठाकर दूसरे में
अपना मांस काट-काट कर रखने लगे और उस कबूतर के साथ तौलने लगे। कबूतर की रक्षा हो
और बाज के भी प्राण बचें, दोनो का ही दुख निवारण हो इसलिए महाराज शिवि अपने
हाथ से अपना मांस काट-काट के तराजू में रखने लगे।
चाहे
राजा शिवि जितना भी अपना मांस काटकर के पलड़े
पर चढ़ा रहे थे, लेकिन फिर भी कबूतर का वजन हमेशा
ज्यादा ही रहता| तराजू
में कबूतर का वजन मांस से बढता ही गया, राजा ने शरीर भर
का मांस काट के रख दिया परन्तु कबूतर का पलडा ही भारी बना रहा। तब राजा खुद तराजू पर बैठ गये।
जैसे
ही राजा तराजू पर चढे, वैसे ही
कबूतर और बाज दोनो ही गायब
हो गये और उनकी जगह इन्द्र और अग्नि देवता प्रगट हुए।
इन्द्र
ने कहा- राजन् तुम्हारा कल्याण हो। यह जो कबूतर बना था वास्तव में यह अग्निदेव हैं। हम लोग तुम्हारी परीक्षा लेने
आये थे। तुमने जैसा दुस्कर कार्य किया है, वैसा आज तक किसी
ने नहीं किया। जो मनुष्य अपने प्राणो को त्याग कर भी दूसरे के प्राणो की रक्षा
करता है, वह तो
धन्य है राजन आपकी कीर्ति पताका दिग दिगंत तक फहराती
रहेगी |आप धन्य है धन्य हैं । इन्द्र ने राजा को वरदान देते
हुए कहा- तुम चिरकाल तक धर्म पथ पर चलते हुए पृथ्वी पर राज करोगे और अंत में भगवान
भगवान में विलीन हो जाओगे । इतना कहकर इन्द्र और अग्नि स्वर्ग
को चले गए |
अपना
पेट भरने के लिए तो पशु भी जीते हैं, पर प्रशंसा के
योग्य जीवन तो उन लोगो का है जो दूसरों के लिए जीते हैं। दोस्तों, भारत वह भूमि है जहाँ राजा शिवि और दधीचि जैसे लोग अवतरित हुए हैं,
जिन्होंने परोपकार के लिए अपना शरीर दान दे दिया।
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