यस्मान्नोद्विजते लोको
लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।।12.15।।
जिससे किसी प्राणी को
उद्वेग नहीं होता और जो स्वयं भी किसी प्राणी से उद्वेग अनुभव नहीं करता तथा जो हर्ष, अमर्ष
(ईर्ष्या), भय और उद्वेग से
रहित है, वह मुझे प्रिय है।
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।।16.18।।
मिथ्या अहंकार, बल घमंड काम और क्रोध से मोहित हुए असुर, सच्चे धर्म की निंदा करते हुए अपने और
दूसरों के शरीर में स्थित मुझ परमेश्वर से द्वेष करते हैं| पाखंड, गर्व, अभिमान, क्रोध और निष्ठुरता ये आसुरी स्वभाव के लक्षण हैं| ऐसे व्यक्ति अपने आसुरी भाव की प्रेरणा
से कर्म करते हैं|
उनकी बुद्धि का विनाश हो जाता है और वह मेरे द्वारा यथा समय दंड पा जाते हैं|
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षिणां च नारदः।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।।10.26।।
भगवान ने गीता में कहा- सब वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष देवर्षियों में नारद गंधर्वों में मैं चित्ररथ
तथा सिद्धों
में मैं कपिल हूं|
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः।।10.28।।
मैं
शस्त्रों में वज्र हूं और गायों में कामधेनु हूं संतान की उत्पत्ति का हेतु कामदेव
और सांपों में मैं वासुकी हूँ|
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां
विभूतीनां परंतप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।।10.40।।
हे अर्जुन ! मेरी दिव्य
विभूतियोंका अन्त नहीं है। यह तो मैंने तेरे लिए अपनी
विभूतियों का वर्णन अति संक्षेप में किया है| जो भी संसार में ऐश्वर्य युक्त, कांति युक्त और शक्ति युक्त वस्तु (या प्राणी)
है,
उसको मेरे तेज
के अंश से उत्पन्न जानो|
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं
परमेश्वरम् |
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति || 13.28||
जो नष्ट होते हुए सब प्राणियोंमें
परमात्माको नाशरहित और सम भावसे स्थित देखता है, वही वास्तवमें यथार्थ देखता है।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते
तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।4.11।।
जो जिस भाव से मुझे भजता अर्थात
मेरी शरण लेता है मैं उसे उसी के अनुरूप फल देता हूं | हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से, मेरे ही पथका अनुकरण करते हैं।।
अहमात्मा गुडाकेश
सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।।10.20।।
हे गुडाकेश (निद्राजित्) ! मैं संपूर्ण जीवों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण प्राणियों का आदि, मध्य और अन्त
भी मैं ही हूँ।।
बहूनि मे व्यतीतानि
जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न
त्वं वेत्थ परन्तप।।4.5।। -
हे परन्तप अर्जुन ! मेरे
और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ, पर तू नहीं जानता।
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