दानवीर कर्ण और भगवान श्री कृष्ण

 

बात उन दिनों की है जब महाराज युधिष्ठिर इंद्रप्रस्थ पर राज करते थे, राजा होने के नाते वे काफी दान आदि भी करते थे ! धीरे धीरे उनकी प्रसिद्धि दानवीर के रूप में फैलने लगी और पांडवो को इसका अभिमान होने लगा|



कहतें हैं कि भगवान दर्पहारी हैं| अपने भक्तों का अभिमान तो उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं|

यह ठीक है कि श्री कृष्ण पांडवों के अभिन्न मित्र थे लेकिन फिर भी वह किसी के प्रति पक्षपात नहीं रखते थे ।अगर उन्हें पांडवों की कोई बात बुरी लगती थी या गलत मालूम देती थी तो वह पांडवों को उसके बारे में अवगत कराते थे ! श्री कृष्ण को आभास  हो गया था कि पांडवों को अपनी दानवीरता का अभिमान हो गया है|


एक बार कृष्ण इंद्रप्रस्थ पहुँचे!भीम व् अर्जुन ने युधिष्ठिर की प्रशंसा शुरू की कि वे कितने बड़े दानी हैं !

तब कृष्ण ने उन्हें बीच में ही टोक दिया और कहा, लेकिन हमने कर्ण जैसा दानवीर ना तो देखा और ना ही सुना !

अर्जुन से न रहा गया और उन्होंने श्रीकृष्ण से पूछ ही लिया कि आप धर्मराज युधिष्ठिर के रहते हुए कर्ण की प्रशंसा क्यों करते हैं ?

श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि धीरज रखो ।कुछ समय बाद तुम्हें उत्तर मिल जाएगा ।

कुछ दिनों बाद पूर्व योजनानुसार एक दिन श्रीकृष्ण अर्जुन को लेकर साधू का भेष बदलकर धर्मराज युधिष्ठिर के द्वार पर पहुंचे । उन्होंने धर्मराज से कहा कि हमें यज्ञ – हवनादि करने के लिए एक मन चन्दन की सूखी लकड़ियाँ चाहिए । महाराज युधिष्ठिर ने साधुओं का स्वागत सत्कार किया और अतिथिगृह में प्रतीक्षा के लिए बिठा दिया ।

वर्षाकाल था अतः सभी जगह की लकड़ियाँ गीली हो चुकी थी । फिर भी महाराज युधिष्ठिर ने नगर में अपने सेवक भेजे तथा लकड़ियों की व्यवस्था करने की कोशिश की । सेवक सभी जगह भटक कर आ गए किन्तु एक मन चन्दन की लकड़ियाँ नहीं जुटा सके । और मिल भी कैसे सकती थी !

 

जितनी थोड़ी लकड़ियाँ वो जुटा सके थे, उन्हें लेकर महाराज युधिष्ठिर साधुओं के भेष में आये भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के पास पहुंचे । धर्मराज बोले – “ महात्माओं ! आपके एक मन चन्दन की लकड़ियों की व्यवस्था करने में मैं असमर्थ हूँ, आप चाहे तो कुछ और मांग सकते है ।”

 

इस पर साधू के भेष में खड़े श्रीकृष्ण बोले – “ चन्दन नहीं मिल सकता तो कोई बात नहीं । हम कहीं और से व्यवस्था कर लेंगे । प्रणाम !” यह कहकर वो दोनों चल दिए ।

यहाँ से सीधा वह दोनों कर्ण के द्वार पर पहुंचे । वहां भी उन्होंने एक मन चन्दन की लकड़ियों की मांग की । कर्ण ने भी पहले तो अपने अनुचरों को यहां-वहां भेजकर चंदन की लकड़ी मंगवाने का प्रयत्न किया लेकिन फिर जब सब ने आकर के मना कर दिया कि सूखी लकड़ी मिल पाना संभव नहीं है तो कर्ण ने दोनों साधुओं से कहा– “आज तो चन्दन की लकड़ियाँ मिलना संभव नहीं है| अगर आप एक दो दिन ठहरे तो व्यवस्था हो सकती है ।


इस पर साधू के भेष में श्रीकृष्ण बोले – “नहीं ! हमें वर्षाकाल में ही यज्ञ करना है, अतः आज ही चाहिए| दे सको तो ठीक अन्यथा हम कहीं और से व्यवस्था कर लेंगे ।”

 कर्ण ने कुछ देर विचार किया और उसके बाद धनुष के ऊपर बाण चढ़ाकर के राज महल के दरवाजे, पलंग और जो भी चंदन की बनी हुयी चीजें थी, उन्हें काट कर के बहुत सारी लकड़ी का ढेर लगा दिया और फिर ब्राह्मण रूप धारी कृष्ण से कहा कि महाराज आपको जितनी लकड़ी चाहिए आप उतनी लकड़ी ले जाइए ।


इस पर श्री कृष्ण ने कहा कि हमें तो सिर्फ एक मन चंदन की लकड़ी चाहिये थी पर आपने तो कीमती दरवाजे ही नष्ट कर डाले । कर्ण ने कहा - महाराज बाहर मूसलाधार बारिश हो रही है ऐसे में सूखी लकड़ी मिलना असंभव है । फिर-फिर आपको तो लकड़ी तत्काल चाहिए थी ना । मैं अतिथि को खाली हाथ नहीं लौटाना चाहता था ।

यह सुनकर भगवान ने कर्ण को यशस्वी होने का आशीर्वाद दिया और वहाँ से चले आये ।

फिर एकांत पाकर उन्होंने अर्जुन से कहा - अब तो तुम्हें समझ में आ गया होगा कि कर्ण वास्तव में ही दानवीर हैं और प्रशंसा के पात्र हैं।

धर्मराज युधिष्ठिर भी तो यह कर सकते थे लेकिन यह विचार भी उनके मन में नहीं आया।

भगवान ने कहा !साधारण अवस्था में दान देना कोई विशेषता नही है !असाधारण परिस्थिति में किसी के लिए अपने सर्वस्व को त्याग देने का ही नाम दान है !
अन्यथा चन्दन की लकड़ी के खिड़की -द्वार तो युधिष्ठिर के महल में भी थे !

भगवान ने फिर कहा त्याग और परोपकार की भावना व्यक्ति के किसी बड़े काम से नहीं बल्कि छोटे छोटे प्रसंगों में ही झलकनी चाहिए । यह सुनकर अर्जुन के मन का क्षोभ समाप्त हो गया । और पांडवो का वृथा अभिमान भी मिट गया|


भगवान ने गीता में भी कहा है- न मे द्वेष्योस्ति न प्रिय: अर्थात न मेरा कोई प्रिय है न अप्रिय |भगवान् तो सिर्फ न्याय करते हैं, और उनका प्रेम तो उचित पात्र को ही सद्कर्मो के आधार पर मिलता है|


https://youtu.be/UVL-TTBGmhs 

 

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